ये वो आंसू हैं जिनसे तख़्ते सुल्तानी पलटता है : मुनव्वर राणा

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नई दिल्ली। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पूरे देश में विरोध प्रदर्शन का दौर चल रहा है। इस कानून को लेकर देश दो धड़ों में बंटा हुआ है, कोई समर्थन में सोशल मीडिया पर अपनी राय रख रहा है। तो कोई इसके खिलाफ है।

इसी बीच देश के मशहूर शायर मुनव्वर राणा के सोशल मीडिया एकाउंट से शनिवार को दूसरी कविता लिखकर कही न कहीं अपनी व्यथा उजागर करते। अपने विचार साझा किए हैं।

किसी को देख कर रोते हुए हंसना नहीं अच्छा…

किसी को देख कर रोते हुए हंसना नहीं अच्छा, ये वो आंसू हैं जिनसे तख़्ते सुल्तानी पलटता है। कहीं हम सरफ़रोशों को सलाखें रोक सकती हैं, कहो ज़िल्ले इलाही से कि ज़िंदानी पलटता है।

तुमने ख़ुद ज़ुल्म को मेअयारे हुकूमत समझा…

तुमने ख़ुद ज़ुल्म को मेअयारे हुकूमत समझा,अब भला कौन तुम्हें मसनदे शाही देगा।
जिसमें सदियों से ग़रीबों का लहू जलता हो, वो दिया रोशनी क्या देगा सियाही देगा।
मुंसिफे वक़्त है तू और मैं मज़लूम मगर, तेरा क़ानून मुझे फिर भी सज़ा ही देगा।

इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे…

इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे, ज़मीं से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं।

वफादारों को परखा जा रहा है,हमारा जिस्म दाग़ा जा रहा है…

वफादारों को परखा जा रहा है,हमारा जिस्म दाग़ा जा रहा है। किसी बूढ़े की लाठी छिन गई है, वो देखो एक जनाज़ा जा रहा है। न जाने जुर्म क्या हमसे हुआ था, हमें किस्तों में लूटा जा रहा है।

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