Atal Bihari Vajpayee

अटल बिहारी वाजपेयी की जन्मतिथि पर विशेष: सशस्त्र रथवानों से लड़ता एक नि:शस्त्र विरथी ‘योद्धा’

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देशवासियो,

सादर-वंदे मातरम!

25 दिसंबर,2022 को  दाऊदादा जी (पंडित अटल बिहारी बाजपेयी) (Atal Bihari Vajpayee) को उनकी जन्मतिथि पर याद करते हुए यह उल्लेख होना ही था कि पश्चिम बंगाल में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक प्रो.देवीप्रसाद घोष ने कभी यह कामना की थी कि अटल जी 300 वर्ष की आयु प्राप्त करें। अगर प्रख्यात जनसंघ-नेता की यह मनोकामना पूर्ण होती तो अटल (Atal Bihari Vajpayee)  आज जीवित होते और हमारे बीच होते। स्वाभाविक रूप से 95-96 वर्ष के अटल विडंबनाओं से भरे उनके परिदृश्यों के साथ-साथ ‘हिंदी से न्याय’ (Hindi se Nyay) इस देशव्यापी अभियान पर ‘सिंहासन’ की आश्चर्यजनक चुप्पी से भी रूबरू होते,भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक के सम्पूर्ण -पथ पर 272 का निशान उन्हें मातृभाषा पर कुछ न कर पाने के लिए सदैव खिन्न करता रहा।आज वह आंकड़ा मौजूद है तो क्या अटल अब भी खामोश रहते? या मजबूत व चट्टानी-इरादों से हमारे साथ देश की इस प्रखर चिंता पर ‘सिंहासन’से जूझते। चलिए यह सवाल देश पर छोड़ते हुए ‘हिंदी से न्याय’ अभियान की बात पर लौटता हूं।

प्रारंभ का अभियान इस बात को लेकर था कि एल-एल.एम.की परीक्षा हिंदी भाषा में भी हो,शुरुआती दौर में जब अटल जी से सम्पूर्ण योजना पर चर्चा हुई तो सब-कुछ सुनने के बाद उन्होंने अभियान को शुभाशीष प्रदान किया, साथ-साथ सख्त चेतावनी व सुझाव भी दिया,’अपने अभियान को ‘हिंसक होने’ ,’थकाने’ व ‘बांटने’ की सिंहासन की कोशिशों को सफल मत होने देना!’ बहुत छोटी उम्र में विद्यार्थी-आंदोलनों के हिस्सा बन गया था,अटल जी से जब यह वार्तालाप हो रहा था,तब भी आयु बहुत अधिक नहीं थी,विद्यार्थी था तो बहुत कुछ समझ में नहीं आया।

Atal Bihari Vajpayee

23 मार्च,भगत सिंह के बलिदान-दिवस के दिन दो अन्य सहयोगी विद्यार्थियों रमेश वर्मा व किशन सिंह नरवार के साथ जब मैं आगरा विश्वविद्यालय के प्रांगण में भूख-हड़ताल पर बैठा तो दो दिन तक सब कुछ ठीक-ठाक रहा,धरना-स्थल पर विद्यार्थियों की भीड़ को देखकर आगरा विश्वविद्यालय का प्रशासन अवाक था,हक्का-बक्का था,तीसरे दिन की मध्य -रात्रि में आगरा विश्वविद्यालय के प्रांगण की जमीन पर गड्ढे बिछाकर अध-जगे से हम तीन दिन के भूखे तीनों-विद्यार्थियों पर आगरा विश्वविद्यालय के गुंडे-मवालियों ने हथियारों से लैस होकर हमला किया,हमारे टेंट उखाड़ दिए गए,बिस्तर-सामान फेंक दिया गया और हम तीनों को जबरन एक वाहन में बिठाकर राजा की मंडी चौराहे पर छोड़ दिया गया।राजा की मंडी चौराहे पर जब हम वाहन से बाहर उन लोगों से जूझ रहे थे,वहीं से अमर उजाला के एक पत्रकार रात्रि-पॉली की ड्यूटी खत्म कर अपने घर मोती कटरा लौट रहे थे,उन्होंने सब-कुछ देखा-सुना और अपनी मोपेड से तुरंत प्रेस लौट गए, उन्होंने संपादक को सब बताया होगा।आगरा के उस समय के सर्वाधिक प्रसार वाले हिंदी दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला के प्रमुख पृष्ठ पर यह घटना ‘सेकेंड-लीड’ थी। आगरा -कॉलेज में उन दिनों विधि -संकाय की प्रातः कालीन कक्षाएं लगती थीं, अमर उजाला की खबर पढ़ते ही विधि-विद्यार्थियों में आक्रोश फैल गया, हम तीनो कई छात्रावासों के सैकड़ों विद्यार्थियों के साथ आगरा कॉलेज पहुंचे, कक्षाएं बंद करा दी गई, गुस्साए विद्यार्थियों ने आगरा की व्यस्ततम सड़क एमजी रोड जाम कर दी, उधर सुल्तानगंज की पुलिया के पास आगरा विश्वविद्यालय के छात्रावास में रह रहे विद्यार्थियों ने दिल्ली-कानपुर बाईपास जाम कर दिया, कई किलोमीटर तक का जाम था, कई इंटर-कॉलेज वह डिग्री कॉलेज या तो स्वतः बंद कर दिए गए या वहाँ आक्रोशित विद्यार्थियों ने बंद करा दिए, राजा की मंडी बाजार बंद करते हुए विद्यार्थियों पर लाठीचार्ज भी हुआ, अफरा तफरी का माहौल रहा। शाम को प्रशासन की पहल पर आगरा विश्वविद्यालय प्रशासन वार्ता को तैयार हुआ। यह ‘हिंदी से न्याय’ अभियान को हिंसक बनाने की पहली कोशिश थी, इससे ठीक तीन वर्ष पश्चात दिल्ली के जंतर-मंतर पर शांतिपूर्ण तरीके से धरना व भूख हड़ताल पर बैठे हम तीन मित्रों पर अकारण लाठीचार्ज किया गया, घायल हुए ,यह अभियान को हिंसक बनाने की दूसरी कोशिश थी । दूसरी साजिश थी, पर हो गया उल्टा । इन दोनों घटनाओं ने आगरा व उसके आसपास के कुछ जिलों तक ही सीमित अभियान को देशव्यापी बना दिया। हिंदी के साथ अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने भी दोनों घटनाओं को उस समय प्रमुखता से छापा था, अगाध स्नेह एवं समर्थन से ऊर्जावान हमारी टीम ने उस दिन कालिंदी के तट पर एक भागीरथी संकल्प लिया था कि अभियान के अंतिम परिणाम तक न आराम से बैठेंगे ,न विश्राम से बैठेंगे। अपने विषय व आग्रह को लेकर जब हम देश के सभी राजनैतिक – दल और शीर्ष नेताओं, देश के शीर्ष संपादकों, पत्रकारों ,धर्माचार्यों समेत सभी वर्गों से मिल रहे थे, संवाद कर रहे थे, तो देश की एक शीर्ष पत्रकार राजीव दधीच ने मेरा उपहास उड़ाते हुए उस समय कहा था, आप एक अकेला ग्लूकोज का बिस्कुट होकर थोक का व्यापार करने निकल पड़े हो ,ये चाय की गर्म प्याली में तुम्हें बिना चबाए निगल जाएंगे और तुम्हारा शानदार करियर समाप्त कर देंगे। यह उनकी आहत , आत्मीयता थी ।मैंने उस समय बिना एक पल गंवाए बिना सोचे-समझे कहा था -मैं चुनौती स्वीकार करता हूँ। मैं जानता था कि सिंहासन के तीनों पहियों के अलावा मैं चौथे को भी ललकारने जा रहा हूँ , जैसे-जैसे अभियान की तपिश बढ़ेगी, हमले उतने ही तेज होंगे। बतौर पत्रकार उस लड़ाई को मैंने शुरू तो कर दिया था , पर मैं यह सच्चाई जानता था कि हर दौर में मीडिया शासन के नियंत्रण में ही होगा, जो चाहेगा वो रोका जाएगा। जो सरकारी इमदाद , इश्तेहारों आदि से वंचित रह जाएंगे वो भी उतना ही लिखेंगे व दिखाएंगे, जितनी सहूलियत  होगी। लड़ाई खुद के बलबूते ही लड़ना है ये जानता था। मैं यह भी जानता था कि मेरे गिने-चुने वैचारिक-साथी,जो यह समय तंग-गरीबी व बेहद कठिनाइयों में जी रहे थे, संघर्ष व एकला चलो के दौर में मेरे साथ चलने का उपक्रम, क्यों कर रहे हैं परंतु उनकी वे चिंताएं व आग्रह शासन मिलते ही इस तरह छद्म-छलियाँ व फ़रेबी साबित होंगी, महाराज बनते ही ,वे सभी अपने आस पास इतने तंग-घेरे बना लेंगे कि उन तक तो दूर उनके नौकरों-चाकरों तक पहुंचना भी समुद्र की गहराई नापने जैसा हो जाएगा, सच साबित हुआ,  आशंकाएं-शंकाएं सच साबित हुईं। जो सच के साथ होने का दावा कर रहे थे, वे सब हवा के साथ चले गए।

समूचे 8 वर्ष से अधिक का समय बीत गया, मात्र 8 मिनट भी देश की इस चिंता को सुनने-समझने का समय उन्हें नहीं मिल पाया, अब वह आगरा अथवा देहरादून आते हैं,तो मेरे घर नहीं आते ,मैं भी दिल्ली जाता हूँ,तो उनसे नहीं मिलता। कभी उन्हें कार्यकर्ताओं के घर का भोजन बेहद सुस्वादु लगता था, अब वे होटलों व आलीशान घरों का खाना खाने के अभ्यस्त-आदी है। सामाजिक-सरोकारों से स्वार्थमुक्त कर दिए गए ये विशिष्ट-प्रसव राजनीति में दाखिला प्राप्त करते ही अब मैनेजरनुमा टाइप के ऐसे लोग हैं, जो कभी चुनावी-मोड से बाहर ही नहीं आ पाते, वे जगह-जगह जाते हैं ,चुनावी टिप्स देते हैं और लौट जाते हैं, साथ,कार्यकर्ताओं के सुख- दुख जानने के लिये उनके पास न समय होता है, न ही इच्छा शक्ति। जिन आलीशान घरों,भवनों अथवा होटलों में वे गपशप कर रहे होते हैं, उसके ठीक आसपास ही रह रहे संघर्ष के समय के साथी-कार्यकर्ता का पुरसाहाल जानना उनके लिए नॉनसेंस से ज़्यादा कुछ नहीं है। हर सुदामा को अपने द्वार पर बुलाकर उसे अपमानित करने का उनका शगल खब्ती सरीखा हो गया है। सत्ता उनके लिए साध्य नहीं, साधन बन गई है, उन्होंने अपने आस पास दो श्रेणियाँ बना ली है पालतू और फालतू ,वे उसे ही महत्त्व देते हैं, सुनते हैं,पुरस्कृत करते हैं, जिनकी चेतना व ऊर्जा समय की उमस के साथ जंग खाकर संज्ञाशून्य हो गई हो, विचार और विश्वास में जो विश्वास के पैरोकार हो, शेष उनके लिए फालतू है ,उनसे वो कोई सरोकार नहीं रखते, पर वो यह भूल जाते हैं कि खिड़कियां, रोशनदान बंद कर ,ताज़ी हवा की बातें करना बेईमानी है, देश के बुनियादी सवालों की चर्चा सिर्फ चर्चित होने के लिए करना बेईमानी है।अंततः वो ऐसे पराजित विजेता और उनके हरकारे ऐसी जनपक्षीय फौज साबित होते हैं, जिन पर उनकी अपनी ही जनता ढेले फेंकना शुरू कर देती है।

अटल (Atal Bihari Vajpayee)  की दूसरी चेतावनी थकान की कोशिश यहाँ सच साबित हुई, मेरे शानदार करियर को समाप्त करने के लिए जितना यत्न-प्रयत्न वे कर सकते थे ,उन्होंने किए, जो आज भी जारी है, मेरे वेतन रोके गए, मैंने नए रास्ते चुनें, जब सारा देश रात्रि में अपने -अपने शयन-कक्ष में गहन विश्राम कर रहा होता था,मैं सैकड़ों किलोमीटर की सड़क यात्रा कर रहा होता था, गंतव्य पर पहुंचता, फिर नए स्थान के लिए नई योजना के लिये नई यात्रा शुरू। मेरी नवीन नियुक्ति की पत्रावलियों को राजा- महाराजाओं द्वारा या तो वर्षों तक अपने पास छिपाकर रखा गया या अपने अधीनस्थों को उन पत्रावलियों को प्रतीक्षा में रखने के लिए कहा गया। मुझे नए अवसर मिले ,देश में नहीं बल्कि देश के बाहर विदेशों में भी ,पर अभियान की अंतिम सफलता तक मैं देश में ही रहकर लड़ूंगा,जुझूँगा इस दृढ़ संकल्प के साथ मैं लगातार चलता रहा हूँ।

तो यहाँ भी हो गया उल्टा, उनकी उपेक्षा व अपमान से मुझे लड़ाई की नई वजह मिलती गई, जब उन्होंने हर तर्क- वितर्क को सुन कर भी मुझे अनसुना किया तो ‘हिंदी से न्याय ‘अभियान की देशभर की टीमें गांव-गांव व नगरों के द्वार- द्वार पहुंची, पूरे देश में ‘हिंदी से न्याय’ अभियान की टीमों ने लाखों हस्ताक्षर प्राप्त किए हैं। एक परिवार से एक हस्ताक्षर ये संकल्प नारा बन गया, देश का अपार प्यार व समर्थन हमें मिला। प्रत्यक्ष रूप से  हमने देश भर में लगभग 3,00,00,000 से ज्यादा लोगों से  सीधे संवाद अब तक किया है। यही नहीं आगरा से चलकर हिंदी से न्याय अभियान पूरे देश से होता हुआ उस ब्रितानी धरती तक पहुँच गया, जहां से अंग्रेजी आयी थी। हम अंग्रेजी को उसके ब्रितानी घर तक पहुंचा आये और अपनी मां हिंदी को ले आये। इस ब्रिटेन के चेस्टर,मैनचेस्टर, हैम्पशायर और भी कई जगहों के अलावा अमेरिका के टैक्सास, न्यूयार्क और भी कई जगहों, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, श्रीलंका समेत एशिया एवं यूरोप में रह रहे भारतीयों ने वहाँ जोरदार हस्ताक्षर अभियान चलाया।इन स्थानों के बड़ी संख्या में भारतीयों के हस्ताक्षर हमारे पास मौजूद हैं, लेकिन दिल्ली के सिंहासन को इसकी पदचाप सुनाई नहीं दी। जनवरी 2020 में नई योजना के तहत पुनः हस्ताक्षर-अभियान का श्रीगणेश हुआ, हिंदी न्याय अभियान की देशभर की टीमों ने फिर जनसंवाद किया, गांव में अभियान ने गति पकड़ी, वहीं नगरों के विद्यालयों में सैकड़ों विद्यार्थियों ने एक साथ हस्ताक्षर कर अभियान को समर्थन प्रदान किया, मार्च में देश में तालाबंदी हो गयी,पर अभियान चलाने वालों ने हार नहीं मानी । सोशल मीडिया व ऑनलाइन व अन्य संचार माध्यमों से एक वर्ष के भीतर हस्ताक्षर अभियान चलाया, एवं अन्य साधनों से मेरे साथ अभियान समिति के कई प्रांतों के प्रमुखों ने देश से संवाद किया। अब वो हैरान परेशान हैं कि आखिर ये थकते क्यों नहीं है?

अब अटल जी (Atal Bihari Vajpayee) की तीसरी चेतावनी बांटने पर आता हूँ। पिछले कुछ वर्षों से संपूर्ण अभियान को बांटने की कोशिशें भी शुरू हो गई है, मैं अचंभित हूँ। भारत से सिंहासन की मदद के लिए बनाया गया कोई दल अथवा संस्था अपने आग्रह को लेकर सफल कैसे हो सकता है? सत्याग्रह और समर्थन एक साथ कैसे चल सकते हैं?  चलायें जा सकते हैं?  और फिर जब सिंहासन आपका अपना ही है तो अभियान चलाने की आवश्यकता क्या है?  दो टूक बात क्यों नहीं?  गोष्ठियो, वक्तृताओं, सम्मेलनों आदि से हिंदी – भारतीय भाषाओं को प्राणवायु न मिली है,  न ही मिलेंगे, यह खेल पहले ही बहुत खेला जा चुका है इस खेल को रोकना आवश्यक है ,यदि ऐसा कोई अनुष्ठान उनके पास है जिससे इस देश के असंख्य गरीबों को उनकी अपनी भाषा में न्याय मिल सके, तो सब मिलकर एक साथ ही चलें, हम उनका स्वागत करेंगे। तो यहाँ  अटलजी की तीनों चेतावनियों का मैंने प्रत्यक्ष- साक्षात्कार किया है, कर रहा हूँ। लखनऊ में जब बतौर न्यायाधीश तैनात था, तो वहाँ विधानसभा के ठीक सामने दाऊदादा जी की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए एक होर्डिंग थी। मैं वहाँ से गुजरते हुए उसे रोज़ पड़ता था- हार नही मानूँगा, रार नहीं ठानूंगा, प्रारंभ से अद्यतन चलते रहने की ताकत और लड़ने की शक्ति देती रही है।

शिकायतों के पश्चात अब समाधान पर आता हूँ। ‘हिंदी से न्याय’ इस देशव्यापी अभियान को समूचे तीन-दशक हो जाएंगे ।इस सुप्रीम कोर्ट एवं देश के 25 हाई कोर्ट्स में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं (संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित 22 भाषाएँ) में संपूर्ण वाद -कार्रवाई संचालित किए जाने एवं निर्णय भी पारित किए जाने की मांग को लेकर चलाया गया यह अभियान आज अंतिम द्वार पर है। केंद्र सरकार की इच्छा शक्ति पर इसका समाधान किया जाना है। संविधान के अनुच्छेद 348 की तरह ही भारत के संविधान में एक ऊंची- अदालतों में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की जानी है। यह अनुच्छेद 370 की तरह ही भारत के संविधान में एक अस्थायी-व्यवस्था है । अनुच्छेद 349 में संविधान लागू होने के 15 वर्ष के भीतर इसे समाप्त किये जाने की बात की गई है। अनुच्छेद 348 में संशोधन के विषय को लेकर संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है। प्रस्तावित संशोधन से वाद कार्यवाहियों, संलग्नकों व निर्णयों के अनुवाद में लगने वाले समय और धन की भारी बचत होगी। भारतीय वादकारियों को उनकी अपनी भाषा में न्याय न मिल पाना शोषणकारी औपनिवेशक व्यवस्था की अद्यतन जीवंतता है। राज्य के एडिशनल एडवोकेट जनरल, दो मुख्यमंत्रियों के ओ.एस.डी (न्यायिक, विधायी एवं संसदीय -कार्य )एवं विधि आयोग के सदस्य (प्रमुख सचिव विधायी के समकक्ष) रहते हुए अनुच्छेद 348 से पहले की स्थिति, मैंने एकल-प्रयत्नो से उत्तराखंड में बहाल करा दी है। हम तो यहाँ तक कह रहे हैं कि केंद्र-सरकार जब तक अनिर्णय की स्थिति में है ,राज्य अपने-अपने यहां 348 की स्थिति बहाल कर दे, पर ये सब इतना आसान नहीं है, मैं तीन दशकों तक हर द्वार पर गया हूँ, लेकिन समाधान नहीं मिला है। एल- एलएम की परीक्षा में हिंदी भाषा को वैकल्पिक माध्यम बनाने के संघर्ष में ही मेरे समूचे सात वर्ष खर्च हो गये, सिविल-सर्विसेज समेत अनेक महत्वपूर्ण प्रतियोगी-परीक्षाओं की पर्याप्त तैयारी होने के बावजूद उन परीक्षाओं में सम्मिलित नहीं हो सका। अंतत अपने अभियान में सफल तो हुआ लेकिन जीवन के महत्वपूर्ण अवसरों से वंचित रह गया, और अपने पराए सभी के बीच व्यंग्योक्तियों का पात्र बन गयाजो आज भी हूँ। विधि की पढ़ाई एवं विधि के विद्यार्थियों (जिनमें से अधिसंख्या किसानों या नगरों के मध्यवर्गीय परिवेशों के वे विद्यार्थी होते थे ,जो महंगी होने के कारण अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके थे ) को पढ़ते -समझते हुए उनके चेहरे पर उदासी व विवशता को मैंने पढ़ा है। हिंदी के देश में हिंदी की लड़ाई, सुनने में अजीब सा लगता है, बाकायदा जंग हुई थी, दिल्ली के वोट-क्लब, जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन, भूख- हड़ताल, लाठी चार्ज, संसद के बाहर पर्चे फेंकने, पोल-खोलो,ज़ोर से बोलो, थूको अभियान, हस्ताक्षर अभियान कैंडल मार्च और भी आंदोलनात्मक सब कुछ हुआ।

तो रास्ता क्या हो?  यह यक्ष प्रश्न है, यह पत्र इसी निमित्त है। मैं देश का आह्वान करता हूँ कि इस पत्र को पढ़ें, फिर अपने आस -पास सिर्फ पांच लोगों के समक्ष विषय छेड़ें और छोड़ें, स्वयं  महामहिम राष्ट्रपति एवं माननीय प्रधानमंत्री को संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन का प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत करने हेतु एक पोस्टकार्ड लिखे और उन पांचों सहयोगियों-मित्रों को भी, उपरोक्त को पत्र लिखने को कहें, संचार-माध्यम हो तो, उसके माध्यम से भी उपरोक्त दोनों महानुभावों को अवगत कराएं। ‘हिंदी से न्याय’ अभियान के पास प्रचुर वित्तीय – संसाधन नहीं है,  समाचार पत्रों में महंगे इश्तेहार,छपवाने ,सरकारी इश्तेहारों को भी खबरों के रूप में छपवाने ,शासन के अनिवार्य दैनंदिन कार्यों (जिसके बदले राजा-महाराजाओं, उनकी अनुचरों-सेवकों को भारी भरकम वेतन, राजसी ठाठ-बाट व सुविधाएं एवं साधन मिलते हैं, जो कार्य उन्हें करने ही है ) को भी अपनी उपलब्धियों के रूप में महंगे-महंगे होर्डिग-बोर्डिंग के माध्यम से प्रचारित कराने जैसा कोई उद्योग अपने पास नहीं है।

हमारे पास भारत हैं, भारत की शक्ति है, भारत की ऊर्जा है, भारत की गति है, भारत की चेतना है, भारत की तितीक्षा है भारत की तिलमिलाहट है ,भारत की ऊंचाई है ,भारत की गहराई है, भारत का तेज है ,भारत का त्याग है ,भारत का तप है ,भारत का तत्व है ,भारत का तर्क है, भारत का तारुण्य है, भारत का तीर है, भारत की तलवार है, भारत का तीखापन है, सच्चापन है, वाणी -विलास, झूठ और फरेब नही है। जो कविता और क्रांति एक साथ चलाना चाहते हैं, देश उन्हें क्षमा नही करेगा, जो लोग मैदान के बाहर खड़े होकर लड़ाई का तमाशा देख रहे हैं , लड़ाई का परिणाम सुनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं , देश उनका भी इतिहास लिखेगा। अब यह आपको तय करना है कि आप देवसुर-संग्रामकृष्ण-कंस मल्लयुद्ध , राम रावण के युद्ध के वे देवतागण बनना चाहते हैं जो आसमान में खड़े होकर युद्ध का परिणाम जानने के लिए आकुल -व्याकुल थे और तय कर चुके थे कि जो जीतेगा ,उसके लिए ही ताली पीटेंगे ,अथवा देश की शीर्ष अदालतों में भाषायी- स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में सम्मिलित होकर इस पुनीत – पुण्य कार्य का हिस्सा बनेंगे,निर्णय आपका है।

हम चले हैं, चल रहे हैं, चलते रहेंगे क्योंकि……समर अभी शेष है।

सादर!!!!

भवदीय

चंद्रशेखर उपाध्याय, न्यायविद

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