Election Results of 5 States

चुनाव नतीजों के विस्मयकारी संदेश

803 0

सियाराम पांडेय’शांत’

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे  आ गए हैं। ये नतीजे विस्मयकारी तो हैं ही, अपने आप में बड़े संदेश भी हैं। इन संदेशों को समझने और तदनरुप भविष्य की रणनीति बनाने की जरूरत है। चुनाव में हार-जीत तो होती रहती हैलेकिन कभी हार के कारणों पर मंथन नहीं होता।और अगर होता भी है तो उसमें भी पार्टी अपने हितों के संतुलन को सर्वोपरि रखती है।ऐसे में वह बात उभरकर नहीं आ पाती,जिसकी आम पार्टीजन अपेक्षा करता है।इन संदेशों की अनदेखी का नुकसान भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही उठाना पड़ सकता है किसी को कम,किसी को ज्यादा लेकिन नुकसान तो नुकसान है।

नंदीग्राम का गढ़ शुभेंदु अधिकारी से हार गई ममता बनर्जी

वर्ष 2014 से ही कांग्रेस निरंतर अपना वजूद खोती जा रही है। अब तो हालात यह बन गए हैं कि वह भाजपा की हार में भी अपनी नैतिक जीत और  तज्जन्य विघ्नसंतोषी आनंद की तलाश करने लगी है।इसे उसकी दुर्बुद्धि की बलिहारी नहीं तो और क्या कहा जाएगा? बंगाल,केरल,पुडुचेरी,तमिलनाडु और असम में कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर था लेकिन  वह कहीं भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। पश्चिम बंगाल में 2016 के चुनाव में वह मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी थी,लेकिन वह रुतबा भी उसने गंवा दिया। इस बार पश्चिम बंगाल के चुनाव पर देश-दुनिया की नजर लगी थी। वहां खेल होने की बात की जा रही थी।खेल हुआ भी तो इस तरह कि प्रतिद्वंदी भाजपा भी हालत को भांप पाने में गच्चा खा गई।

तृणमूल  कांग्रेस की पश्चिम बंगाल में हैट्रिक लग गई। गनीमत यह रही कि ममता बनर्जी नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी से चुनाव हार गई अन्यथा दीदी तो गई जैसे तंज कसने वाली भाजपा को प्रतिपक्ष के जाने कितने वार झेलने पड़ते। इस चुनाव में न  तो मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण हुआ और न ही इनकंबेंसी फैक्टर का ही कोई असर हुआ।

पंचायत चुनाव की मतगणना के दौरान टूटा कोविड प्रोटोकॉल

भाजपा तमाम राजनीतिक कसरतों के बाद भी तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से हिला न पाई।यह और बात है कि उसे बंगाल में जो कुछ भी मिला,कांग्रेस का ही मिला। कांग्रेस को पिछले चुनाव में 76 सीटें मिली थीं। इस बार वह केवल एक सीट पर सिमट कर रह गई।भाजपा ने बंगाल में200 से अधिक सीटें जीतने कड़वा किया था लेकिन वह सौ का आंकड़े से भी 24 अंक पीछे रह गई।

ममता की हैट्रिक की एक वजह यह  भी रही कि उन्हेँ सहानुभूति का लाभ मिला। व्हीलचेयर पर प्रचार का उन्हें भरपूर लाभ मिला।  ओबैसी की पार्टी वहां चल नहीं पाई। कांग्रेस और माकपा  चुनाव लड़ते हुए भी चुनाव लड़ती दिखी नहीं। एक तरह से उन्होंने भाजपा को हराने के लिए तृणमूल कांग्रेस को वाक ओवर से दे रखा था।ऐसे में मुस्लिमों मतों का विभाजन नहीं हो पाया। महिलाओं ने भी ममता का साथ दिया।भाजपा को उत्तरप्रदेश और बिहार के लोगों का तो साथ मिला लेकिन उससे उसकी बहुत बात नहीं बनी।

असम में भाजपा दोबारा सरकार बनाने की स्थिति में है लेकिन  इसके लिए उसे असम गण परिषद जो उसका पूर्व में भी सहयोगी रहा है,के सहयोग की दरकार होगी। केरल में एलडीएफ फिर सत्तासीन हो गई है। केरल में तो चुनावी इतिहास बन है।वहां सत्तारूढ़ दल पर जनता ने अपने विश्वास की मुहर लगाई है। असम,बंगाल और केरल में सत्तारूढ़ दलों की वापसी यह बताती है कि वहां सत्ता के खिलाफ आक्रोश का सिद्धांत बिल्कुल भी काम नहीं कर पाया। आक्रामक प्रचार और वैयक्तिक हमले इस देश की जनता बहुधा पसंद नहीं करती,यह बात इस बार के चुनाव नतीजों से सुस्पष्ट हो चुकी है। ऐसे में भाजपा को भी अपनी चुनावी रणनीति में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा।चुनाव के दौरान जब हम दूसरे दलों से आए लीगों को टिकट देते हैं तो इससे जहां पार्टी में असंतोष बढ़ता है,वहीं मतदाताओं में भी दुविधा के भाव पैदा होते हैं।

पश्चिम बंगाल में भाजपा का मत प्रतिशत जहां 2 प्रतिशत घटा है,वहीं टीएमसी का 5 प्रतिशत बढा है।भले वह 3 से 76 हो गई हो लेकिन उसे मंथन तो इस बिंदु पर भी करना चाहिए। भाजपा में चुनाव पूर्व टीएमसी के 13 विधायकों सहित 30 नेता शामिल हुए थे जिनमें से 10 विधायकों समेत 18 चुनाव हार गए।भाजपा ने अपने चार सांसदों को विधानसभा की जंग में उतारा उनमें 3 लॉकेट चटर्जी,बाबुल सुप्रियो और स्वपन दास गुप्ता चुनाव हार गए । जीते तो बस  निशिथ प्रामाणिक। भाजपा के लिए अच्छी बात यह है किवह देश के 18 राज्यो में सत्ता में है जबकि इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस का देश के 17 राज्यों  में वर्चस्व हुआ करता था।

भाजपा के लिए यह आत्ममन्थन का समय है।उसकी सफलता में गिरावट की एक वजह कोरोना महामारी भी हो सकती है लेकिन उसे  जन सुविधाओं पर ज्यादा फोकस करना होगा।  ये चुनाव नतीजे इस बात के संकेत हैं कि चुनाव जीतना बड़ी बात नहीं है।बड़ी बात है जनता का दिल जीतना।राजनीतिक दल अगर इसमें कामयाब हो गए तो उनके लिए असम्भव  कुछ भी नहीं होगा।आक्रामक और वैयक्तिक हमले जनता की पसंद के विषय नहीं हैं।

दिल्ली और बंगाल के चुनाव नतीजों की समानता से यह बात साफ हो गई है। इसलिए भी राजनीतिक दल छिद्रान्वेषण की जगह अगर आत्मावलोकन की कार्यसंस्कृति अपनाएं तो शायद ज्यादा फायदे में रहेंगे। जहां तक बंगाल की बात है तो वहां का मतदाता परिवर्तन में कम विश्वास करता है । 1972 से 2006 तक वाम दलों की सरकार और 2011 से 2021 तक टीएमसी की सरकार का राजनीतिक लब्बोलुआब तो यही है।वहां लीडर ही जीतता है।किसी राज्य में जड़ जमाए दल को उखाड़ना इतना आसान भी नहीं लेकिन पश्चिम बंगाल में धीरे-धीरे ही सही भाजपा जमने लगी है,यह दूरगामी परिवर्तन  का संदेश तो है ही।

Related Post

रक्षा खरीद परिषद

‘मैंने वही किया, जो मुझे सही लगा, यह हमारी आस्था है कि कोई महाशक्ति है -राजनाथ

Posted by - October 11, 2019 0
नई दिल्ली। फ्रांस से पहला राफेल विमान को लेने के बाद गुरुवार रात रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भारत वापस लौट आए…

कोविंड19 के नियमों को पालन कराने हेतु पुलिस ने लोगो से की अपील

Posted by - March 21, 2021 0
उपजिलाधिकारी मलिहाबाद  के नेतृत्व में तहसीलदार शम्भू शरण व सीओ मलिहाबाद योगेंद्र कुमार ने तहसील क्षेत्र के अंतर्गत कस्बा बाजार…

Pappu Yadav की तबीयत बिगड़ी

Posted by - May 15, 2021 0
JAP (जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक)) सुप्रीमो पप्पू यादव (Pappu Yadav) को DMCH के डॉक्टरों की टीम ने पटना रेफर कर…