budha purnima

प्रत्येक प्राणी के प्रति दयाभाव रखते थे बुद्ध

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योगेश कुमार गोयल

563 ईसापूर्व वैशाख मास की पूर्णिमा को लुम्बनी वन में शाल के दो वृक्षों के बीच एक राजकुमार ने उस समय जन्म लिया, जब उनकी मां कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने पीहर देवदह जा रही थी और रास्ते में ही उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी। इस राजकुमार का नाम रखा गया सिद्धार्थ, जो आगे चलकर महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) के नाम से विख्यात हुए। महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) का जीवन दर्शन और उनके विचार आज ढाई हजार से अधिक वर्षों के बेहद लंबे अंतराल बाद भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उनके प्रेरणादायक जीवन दर्शन का जनजीवन पर अमिट प्रभाव रहा है। हिन्दू धर्म में जो अमूल्य स्थान चार वेदों का है, वही स्थान बौद्ध धर्म में ‘पिटकों’ का है। महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) स्वयं अपने हाथ से कुछ नहीं लिखते थे बल्कि उनके शिष्यों ने ही उनके उपदेशों को कंठस्थ कर बाद में उन्हें लिखा और लिखकर उन उपदेशों को वे पेटियों में रखते जाते थे, इसीलिए इनका नाम ‘पिटक’ पड़ा, जो तीन प्रकार के हैं:- विनय पिटक, सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक।

महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) के जीवनकाल की अनेक घटनाएं ऐसी हैं, जिनसे उनके मन में समस्त प्राणीजगत के प्रति निहित कल्याण की भावना तथा प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव का साक्षात्कार होता है। उनके हृदय में बाल्यकाल से ही चराचर जगत में विद्यमान प्रत्येक प्राणी में प्रति करूणा कूट-कूटकर भरी थी। मनुष्य हो या कोई जीव-जंतु, किसी का भी दुख उनसे देखा नहीं जाता था। एकबार की बात है, जंगल में भ्रमण करते समय उन्हें किसी शिकारी के तीर से घायल एक हंस मिला। उन्होंने उसके शरीर से तीर निकालकर उसे थोड़ा पानी पिलाया। तभी उनका चचेरा भाई देवदत्त वहां आ पहुंचा और कहा कि यह मेरा शिकार है, इसे मुझे सौंप दो। इस पर राजकुमार सिद्धार्थ ने कहा कि इसे मैंने बचाया है जबकि तुम तो इसकी हत्या कर रहे थे, इसलिए तुम्हीं बताओ कि इस पर मारने वाले का अधिकार होना चाहिए या बचाने वाले का। देवदत्त ने सिद्धार्थ की शिकायत उनके पिता राजा शुद्धोधन से की। शुद्धोधन ने सिद्धार्थ से कहा कि तीर तो देवदत्त ने ही चलाया था, इसलिए तुम यह हंस उसे क्यों नहीं दे देते?

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इस पर सिद्धार्थ ने तर्क दिया, ‘‘पिताजी! इस निरीह हंस ने भला देवदत्त का क्या बिगाड़ा था? उसे आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरते इस बेकसूर हंस पर तीर चलाने का क्या अधिकार है? उसने इस हंस पर तीर चलाकर इसे घायल किया ही क्यों? मुझसे इसका दुख देखा नहीं गया और मैंने तीर निकालकर इसके प्राण बचाए हैं, इसलिए इस हंस पर मेरा ही अधिकार होना चाहिए।’’

राजा शुद्धोधन सिद्धार्थ के इस तर्क से सहमत होते हुए बोले, ‘‘तुम बिल्कुल सही कह रहे हो सिद्धार्थ। मारने वाले से बचाने वाला ही बड़ा होता है, इसलिए इस हंस पर तुम्हारा ही अधिकार है।’’

महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) जब उपदेश देते जगह-जगह घूमते तो कुछ लोग उनका खूब आदर-सत्कार करते तो कुछ उन्हें बहुत भला-बुरा बोलकर खूब खरी-खोटी भी सुनाते तो कुछ दूर से ही उन्हें अपमानित कर दुत्कार कर भगा देते लेकिन महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) सदैव शांतचित्त रहते। एकबार वे भिक्षाटन के लिए शहर में निकले और उच्च जाति के एक व्यक्ति के घर के समीप पहुंचे ही थे कि उस व्यक्ति ने उन पर जोर-जोर से चिल्लाना तथा गालियां देना शुरू कर दिया और कहा कि नीच, तुम वहीं ठहरो, मेरे घर के पास भी मत आओ।

बुद्ध ने उससे पूछा, भाई, यह तो बताओ कि नीच आखिर होता कौन है और कौन-कौनसी बातें किसी व्यक्ति को नीच बताती हैं?’’

उस व्यक्ति ने जबाव दिया, ‘‘मैं नहीं जानता। मुझे तो तुमसे ज्यादा नीच इस दुनिया में और कोई नजर नहीं आता।’’

इस पर महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) ने बड़े प्यार भाव से उस व्यक्ति को समझाते हुए कहा, ‘‘जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से ईर्ष्या करता है, उससे वैर भाव रखता है, किसी पर बेवजह क्रोध करता है, निरीह प्राणियों पर अत्याचार या उनकी हत्या करता है, वही व्यक्ति नीच होता है। जब कोई किसी पर चिल्लाता है या उसे अपशब्द कहता है अथवा उसे नीच कहता है तो ऐसा करने वाला व्यक्ति ही वास्तव में नीचता पर उतारू होता है क्योंकि असभ्य व्यवहार ही नीचता का प्रतीक है। जो व्यक्ति किसी का कुछ लेकर उसे वापस नहीं लौटाता, ऋण लेकर लौटाते समय झगड़ा या बेईमानी करता है, राह चलते लोगों के साथ मारपीट कर लूटपाट करता है, जो माता-पिता या बड़ों का आदर-सम्मान नहीं करता और समर्थ होते हुए भी माता-पिता की सेवा नहीं करता बल्कि उनका अपमान करता है, वही व्यक्ति नीच होता है। जाति या धर्म निम्न या उच्च नहीं होते और न ही जन्म से कोई व्यक्ति उच्च या निम्न होता है बल्कि अपने विचारों, कर्म तथा स्वभाव से ही व्यक्ति निम्न या उच्च बनता है। कुलीनता के नाम पर दूसरों को अपमानित करने का प्रयास ही नीचता है। धर्म-अध्यात्म के नाम पर आत्मशुद्धि के बजाय कर्मकांडों या प्रतीकों को महत्व देकर खुद को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करके दिखाने का दंभ ही नीचता है।’’

महात्मा बुद्ध (Mahatma Buddha) के इन तर्कों से प्रभावित हो वह व्यक्ति उनके चरणों में गिरकर उनसे क्षमायाचना करने लगा। बुद्ध ने उसे उठाकर गले से लगाया और उसे सृष्टि के हर प्राणी के प्रति मन में दयाभाव रखने तथा हर व्यक्ति का सम्मान करने का मूलमंत्र देकर वे आगे निकल पड़े।

अपने 80 वर्षीय जीवनकाल के अंतिम 45 वर्षों में महात्मा बुद्ध ने दुनिया भर में घूम-घूमकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया और लोगों को उपदेश दिए। ईसा पूर्व 483 को वैशाख मास की पूर्णिमा (Buddha Purnima) को उन्होंने कुशीनगर के पास हिरण्यवती नदी के तट पर महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। उन्होंने उन्हीं साल वृक्षों के नीचे प्राण त्यागे, जिन पर मौसम न होते हुए भी फूल आए थे। उनका अंतिम उपदेश था कि सृजित वस्तुएं अस्थायी हैं, अतः विवेकपूर्ण प्रयास करो। उनका कहना था कि मनुष्य की सबसे उच्च स्थिति वही है, जिसमें न तो बुढ़ापा है, न किसी तरह का भय, न चिन्ताएं, न जन्म, न मृत्यु और न ही किसी तरह के कष्ट और यह केवल तभी संभव है, जब शरीर के साथ-साथ मनुष्य का मन भी संयमित हो क्योंकि मन की साधना ही सबसे बड़ी साधना है।

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