Politics on the corpse

लाश पर राजनीति: हत्या का मामला पकड़ता जा रहा है तूल

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बदायूं में महिला की सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इस अमानवीय और नृशंस हत्याकांड की सर्वत्र आलोचना हो रही है। धर्मस्थल सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता के केंद्र होते हैं और अगर वहीं इस तरह की घटनाएं होने लगेंगी तो इससे लोग का धर्मस्थलों के प्रति मोहभंग हो जाएगा। इसलिए भी जरूरी है कि बुद्धिजीवी समाज चरित्र से पैदल लोगों को धर्मस्थलों में प्रविष्ट न होने दें।

बदायूं की घटना बेहद विचलित और उद्वेलित करने वाली है। इस तरह की वारदात दोबारा न हो, इस दिशा में भरसक प्रयास किए जाने की जरूरत है। योगी सरकार ने इस घटनाकांड का न केवल संज्ञान लिया है बल्कि इस मामले की एसआईटी जांच कराने और फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई करने के निर्देश दिए हैं। उन्होंने मृतका के परिजनों को दस लाख की सहायता राशि देने की भी बात कही है लेकिन जिस तरह विपक्षी दल उन पर हमलावर हुआ है।

उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था पर सवाल उठे हैं। सत्तासीनों को डूब मरने की नसीहत दी गई है,उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह तो वही बात हुई कि ‘करै कोई भरै कोई।’यह सच है कि इस घटना के लिए मुख्यमंत्री या सत्तारूढ़ दल अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकते। मोड़ा भी नहीं है। सरकार ने अपनी जिम्मेदारी को समझा भी है और इस मामले में त्वरित कार्रवाई भी की है। स्थानीय पुलिस पर आरोप है कि शिकायत के बाद भी दो दिनों तक अपराधियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं।

इससे उन्हें भागने का मौका मिल गया। सरकार संज्ञान न लेती तो शायद आरोपियों की सेहत पर कोर्ट असर भी नहीं पड़ता, लेकिन जब जागे तभी सबेरा। इस नृशंस हत्याकांड के दो आरोपी पकड़े जा चुके हैं। मुख्य आरोपी भी जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है और उनके साथ सख्त कार्रवाई भी की है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में अपराध करने वाले बख्शे नहीं जाते, यह बात हर आम और खास को पता भी है। इसके बाद भी कांग्रेस और सपा के लोग अगर योगी आदित्यनाथ पर अभद्र टिप्पणी कर रहे हैं। उन्हें कुर्सी से उतर जाने की बात कह रहे हैं तो सवाल यह है कि जब कभी इन दोनों दलों की सरकार सत्ता में थी तब भी ऐसा ही होता था क्या? जो भी राजनीतिक दल इस तरह की मांग कर रहे हैं क्या उनके नेताओं ने कुर्सी छोड़ने की कभी पहल की है।

नीति कहती है ‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।’हाल ही में सलोन में धर्मांतरण से आक्रोशत दबंगों ने एक परिवार को जिंदा जलाने की कोशिश की थी लेकिन सत्तारूढ़ दल को अपवाद मानें तो शायद ही किसी दल ने इस मुद्दे पर आवाज उठाई हो। उस समय सभी ने अपने मुख सिल लिए थे। अपराध—अपराध में इस तरह का अंतर आजाद भारत में बहुत कम देखने को मिलता है, लेकिन मौजूदा राजनीति में इस तरह की सोच का ध्वनित होना अब आम बात हो गई है।

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किसी घटना को राजनीतिक चश्मे से देखना उचित नहीं है। वैसे भी विपक्ष का अर्थ केवल विरोध करना ही नहीं होता। उसे सकारात्मक सुझाव भी देना होता है। कुछ नेताओं का कहना है कि उत्तर प्रदेश का बेहतरीन प्रदेश होना तब तक संभव नहीं है जब तक कि राज्य और केंद्र से भाजपा का सफाया न हो जाए। अब ऐसे राजनीतिज्ञों को कौन समझाएं कि विचारों का कभी अंत नहीं होता। वे अपना रूप बदलते रहते हैं। जिस तरह वायरस कभी नहीं मरता, उसी तरह विचारों का भी अंत नहीं होता। सत्ता का अपना अंदाज होता है।

योगी सरकार निरंतर काम करने में विश्वास रखती है, लेकिन कुछ अधिकारियों की अन्यमनस्कता के चलते उसे अक्सर विपक्ष की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ सकता है। दुनिया के किसी भी देश में इस तरह का लोकतंत्र नहीं है जो सरकार के सही निर्णय का भी विरोध करे। चीन सरकार ने कहा है कि सरकार के खिलाफ जो भी बोलेगा, उस पर कड़ी कार्रवाई होगी लेकिन भारत में तानाशाही का कथित तौर पर विरोध करने वाले एक भी राजनीतिक दल ने उसकी आलोचना नहीं की। उन्हें चीन की तानाशाही नजर नहीं आती। यहां के राजनीतिक दल सरकार की इतनी आलोचना करती है कि वह काम ही नहीं कर पाए।

भारत में विपक्षी दलों को इस बात का मलाल होता है कि मोदी और योगी सरकार हर कार्य का श्रेय खुद लेती है। उन्हें समझना होगा कि श्रेय तो उसी को मिलता है जो काम करता है। जो काम ही न करे, आधे—अधूरे काम का लोकार्पण कराए, उसे श्रेय अगर मिल भी जाए तो किस काम का? निश्चित रूप से बदायूं की घटना निंदनीय है लेकिन इस पर किसी को भी राजनीति की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह दोषियों को जल्द पकड़वाए। उन्हें सजा दिलाए। साथ ही इस बात की भी ताकीद कराए कि धर्मस्थलों में किस तरह के लोग बैठे हैं।

जाहिर सी बात है कि इससे धर्मगुरुओं के भड़कने का भय है लेकिन यह भी तय है कि इस निर्णय से धर्मस्थलों में स्वच्छता आएगी। देश की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने वालों को हर क्षण दोधारी तलवार पर चलना पड़ता है। अपने कार्य व्यवहार को आचरण की कसौटी पर कसना होता है। तभी वह समाज का विश्वास जीत पाते हैं। किसी भी महिला के साथ इस तरह का व्यवहार शोभनीय नहीं है। देश में एक जैसी अनेक घटनाओं का होना पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता भी प्रमाणित करता है। घटना होने के बाद प्रशासन का सक्रिय होना तो ठीक है, लेकिन अगर पुलिस केवल सतर्क रहे तो इतने भर से इस तरह की समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।

पुलिस प्रशासन को सोचना होगा कि उस पर आए दिन सवाल क्यों उठते रहे हैं। ऐसा नहीं कि पुलिस महकमे में सभी लापरवाह, निष्क्रिय या बेईमान ही हों लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि सभी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं है। जब तक दोषी लोगों पर कार्रवाई नहीं होगी। इस तरह की घटनाओं के लिए अधिकारियों को भी मसलन, डीएम—एसपी को भी जिम्मेदार नहीं बनाया जाएगा, उन पर सख्त कार्रवाई नहीं होगी तब तक इस तरह की अमानुषिक घटनाओं पर अंकुश लगा पाना मुमकिन नहीं होगा।

जब तक समाज का एक भी व्यक्ति अपराधियों के पक्ष में खड़ा होगा, तब तक उनका मनोबल कैसे टूटेगा? हाथरस कांड में यूपी पुलिस की भूमिका पर जिस तरह के सवाल उठे थे, वैसे ही सवाल आज भी उठ रहेंगे। ऐसे में बड़ा प्रश्न यह है कि पुलिस सुधेरेगी कब? अपनी कार्यशाली में बदलाव कैसे लाएगी।

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