Maratha Reservation

मराठा आरक्षण पर आरोपों-प्रत्यारोपों के सियासी हंटर

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 सियाराम पांडेय‘शांत’

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा ( Maratha Reservation) कानून को न केवल असंवैधानिक करार दिया बल्कि उसे खारिज भी कर दिया।  इसे महाराष्ट्र सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) के इस निर्णय पर भाजपा और शिवसेना के बीच एक बार फिर राजनीति गरमा गई है। दोनों ही इस आदेश के बहाने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की तलवार भांजने लगे हैं। विकथ्य है कि भारत में आरक्षण (Reservation) की शुरुआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी लेकिन आजादी के 74 साल बाद भी अगर आरक्षण के मुद्दे पर देश में आरोपों-प्रत्यारोपों का हंटर चल रहा है तो इसे क्या कहा जाएगा?

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने साफ कर दिया है कि आरक्षण (Reservation) की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती। 1992 के मंडल फैसले (इंदिरा साहनी फैसले) को वृहद पीठ के पास भेजने से भी उसने इनकार कर दिया है न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने आरक्षण के लिए तय 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करने के लिए कोई असाधारण परिस्थिति या मामला पेश नहीं किया। उसने यह फैसला बंबई उच्च न्यायालय (Supreme Court) के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं सुनाया है। उच्च न्यायालय (Supreme Court)  ने राज्य में शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मराठों के लिए आरक्षण के फैसले को बरकरार रखा था।

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सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने इस बात का सुस्पष्ट उल्लेख भी किया कि मराठा समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर मुख्यधारा में शामिल है। वह निश्चित रूप से राजनीतिक प्रभुत्व वाली जाति है। सरकारी नौकरियों में भी उसका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है। यह और बात है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) का यह फैसला रास नहीं आया है और उन्होंने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे दिया है। उन्होंने  केंद्र से इस मामले में तत्परता हस्तक्षेप करने  का अनुरोध किया है। वे चाहते हैं कि केंद्र सरकार मराठा आरक्षण (Maratha Reservation) के हित में संविधान संशोधन करे। उन्होंने कहा है कि इस समुदाय को आरक्षण का निर्णय गायकवाड़ आयोग की सिफारिश के आधार पर महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से लिया गया था। शीर्ष अदालत ने उसे इस आधार पर निरस्त कर दिया कि राज्य को इस तरह के आरक्षण देने का हक नहीं है।

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सर्वोच्च न्यायलय (Supreme Court) के निर्णय का ठीकरा उद्धव ठाकरे केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर ऊोड़ने लगे हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि राज्यसभा सदस्य छत्रपति संभाजी राजे एक साल से इस विषय पर प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांग रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री उन्हें समय नहीं दे रहे हैं। उन्होंने तो यह तक कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत नहीं किया जा सकता, लेकिन किसी को भी लोगों को नहीं भड़काना चाहिए। जब तब हम आरक्षण ( Maratha Reservation) का मामला जीत नहीं जाते, प्रयास जारी रहना चाहिए। मतलब एक तरह से वे सर्वोच्च न्यायालय पर मराठों की भावना से खेलने का आरोप लगाने लगे हैं। उनका कहना है कि नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों  में दाखिले में मराठों को आरक्षण देने के लिए 2018 में राज्य की तत्कालीन भाजपा नीत सरकार ने सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा समुदाय अधिनियम पारित किया था। मराठा क्रांति मोर्चा  के संयोजक विनोद पाटिल सर्वोच्च न्याायलय से मराठा कानून के निरस्त हो जाने  के लिए सीधे तौर पर मौजूदा महाराष्ट्र सरकार को जिम्मेदार ठहरारहे हैं। उनका आरोप है कि उसने समय से कानूनी रणनीति नहीं बनायी। उन्होंने भाजपासे भी यह जानना चाहा है कि  वह मराठा समुदाय के लिए क्या कर सकती है।

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केंद्रीय मंत्री राम दास अठावले चाहते हैं कि केंद्र सरकार मराठा, जाट, राजपूत एवं रेड्डी जैसे क्षत्रिय समुदायों को अलग से आरक्षण दे। वहीं वे यह आरोप भी लगाते हैं कि मराठा आरक्षण ( Maratha Reservation) कानून को उच्चतम न्यायालय उद्धव ठाकरे सरकार ने इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ढंग से पेश ढंग से पेश नहीं किया।

वहीं भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि मौजूदा महाराष्ट्र सरकार  मराठा समुदाय के लिए आरक्षण के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) को ठीक से अपनी बात समझा नहीं सकी। इस मुद्दे पर चर्चा  के लिएवह सर्वदलीय बैठक और विधानसभा का विशेष सत्र बुलाये।  गौरतलब है कि पूर्ववर्ती देवेंद्र फड़णवीस सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया था जिसने मराठा समुदाय को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक मोर्चे पर पिछड़े मानने की सिफारिश की थी। तब फड़णवीस सरकार ने मराठाओं के लिए नौकरियों एवं दाखिले में आरक्षण के लिए 2018 में कानून बनाया जिसे बाद में बंबई उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। फड़णवीस सरकार ने उच्च न्यायालय को समझाया कि मराठा राज्य की जनसंख्या में 32 प्रतिशत हैं और यह कैसे राज्य में असामान्य स्थिति है।

विधानसभा चुनाव से 14 महीने पहले आरक्षण की मांग को लेकर महाराष्ट्र सुलग उठा था। मराठा सड़कों पर उतर आए थे। वह सरकारी नौकरियों और सरकारी कॉलेजों में 16 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहे थे। एक युवक ने तो इस मुददे पर नदी में कूद कर जान तक दे दी थी। इसके बाद मराठा सड़कों पर उतर आए थे। महाराष्ट्र में मराठों की 32 प्रतिशत है ।

राज्य की  75 प्रतिशत जमीन पर उनका मालिकाना हक है। राज्य की ज्यादातर चीनी मिलें और शिक्षण संस्थान मराठों के पास हैं। राज्य के 18 में से 12 मुख्यमंत्री इसी जाति से हुए हैं। सरकार की तीन रिपोर्ट कहती है कि मराठा न तो शिक्षा के स्तर पर और न ही सामाजिक स्तर पर पिछड़े हैं फिर उन्हें आरक्षण को लेकर इतना उतावलापन शायद वोट बैंक की राजनीति ही है। जून 2014 में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने मराठों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। इसके साथ ही सरकार ने मुस्लिमों के लिए 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था। इसके बाद राज्य में आरक्षण का दायरा बढ़कर 52 प्रतिशत हो गया था।

सरकार के इस फैसले के पांच महीने बाद हाईकोर्ट ने इसपर रोक लगा दी थी। विधानसभा की 288 सीटों में से 80 पर मराठा वोटों को निर्णायक माना जाता है। परंपरागत रूप से मराठा कांग्रेस,एनसीपी और शिवसेना के समर्थक  रहे हैं। भाजपा को पता है कि मराठा उसे वोट नहीं देते। ऐसे में उसकी मजबूरी है कि वह इस दिशा में  सहयोग का हाथ बढ़ाकर अपने अन्य मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहेगी। शिवसेना जब भाजपा के साथसत्तामें सहयोगी थी तब भी, वह फड़णवीस सरकार की मुखर आलोचक थी और आज भी वह भाजपा की मुखालफत को ही अपना अभीष्ठ मान बैठी है। बेहतर तो यह होता कि उद्धव ठाकरे सरकार अदालत के निर्णयों पर विचार करती।

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