अंग्रेजों के जमाने का तो बहुत कुछ है

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सियाराम पांडेय ‘शांत’

कोई  भी देश संविधान से चलता है। कानून से चलता है। इसलिए कानून को हटाने में नहीं, उसे जनता के हितों के अनुरूप बनाने, उसे संशोधित- परिमार्जित करने के प्रयास होने चाहिए। भारत जैसे विविधतापूर्ण और बड़ी आबादी वाले देश के लिए जितनी जरूरत कड़े कानून निर्माण की है, उतनी ही जरूरत असहमति के अधिकारों की रक्षा की भी है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बने टाडा, पोटा जैसे कानून को सिर्फ इसलिए खत्म करना पड़ा था क्योंकि उनका दुरुपयोग होने लगा था। आज जब देश आए दिन आतंकवादी घटनाओं का सामना कर रहा है, ऐसे में कठोर कानूनों की देश को बड़ी जरूरत है लेकिन जिस तरह मकोका, यूपीपीए और 124 ए को लेकर विवाद हो रहा है, उस पर गहन मंथन की भी जरूरत है।

124ए ऐसी धारा है जो राजद्रोह और देशद्रोह दोनों पर लगती है। ऐसे में भी इसे परिभाषित किए जाने की महती आवश्यकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अंग्रेजों के जमाने (British Era) में बने राजद्रोह कानून पर चिंता जाहिर की है। केंद्र सरकार से यह जानना चाहा है कि वह इसे हटा क्यों नहीं रही है? शीर्ष अदालत को भी लगता है कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी बाधित हो रही है। जाहिर तौर पर यह टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सेना के एक निवर्तमान अधिकारी की जनहित याचिका पर दिया है। अदालतें किसी याचिका के आलोक में ही अपनी बात कहती हैं। यह बात और है कि केंद्र सरकार ने कहा है कि वह इस कानून को हटाने नहीं जा रही है। शीर्ष अदालत चाहे तो ऐसे निर्देश दे सकती है जिससे इस कानून का दुरुपयोग न हो।

लार्ड मैकाले द्वारा 1833 में ड्राफ्ट  कानूनों पर अगर वर्ष 2021 में न्यायिक विमर्श की जरूरत पड़ रही है तो इसे क्या कहा जाएगा। जिस राजद्रोह कानून को उसके जन्मस्थल ब्रिटेन में 2009 में ही औचित्यहीन करार देते हुए समाप्त कर दिया गया हो, ऑस्ट्रेलिया और स्कॉटलैंड ने 2010 में, दक्षिण कोरिया ने 1988 में और इंडोनेशिया ने 2007 में ही खत्म कर दिया हो, उसे भारत अभी तक क्यों ढो रहा है, यह विचारणीय तथ्य है। लार्ड मैकाले की आत्मा आखिर कब तक इस देश के कायदे-कानून पर अपना चाबुक चलाती रहेगी। हमें एक औपनिवेशिक राजद्रोह कानून की तो चिंता है लेकिन भारतीय संविधान के जरिए पूरा भारत आज भी ब्रिटेन के उपनिवेश बन कर रह गया है, इस बात का विचार न तो इस देश का कोई बुद्धिजीवी करता है, न राजनेता और न ही कोई न्यायविद।

इसमें शक नहीं कि इस देश को लूटने और यहां शासन करने की गरज से अंग्रेजों ने 34735 कानून बनाए थे। देश आजादी के बाद कायदतन तो हमें उन कानूनों से पिंड छुड़ा लेना चाहिए था लेकिन में से अधिकांश का अनुपालन आज भी भारत में बदस्तूर हो रहा है। इंडियन एजुकेशन एक्ट 1858 को ही हम कहाँ बदल पाए हैं। जिस कानून के चलते 1850 तक देश में चल रहे 7 लाख 32 हजार गुरुकुलों को, यहां तक कि संस्कृत भाषा को भी अवैध घोषित कर दिए गए थे।अंग्रेजी इस देश पर लाद दी गई थी, उस कानून को हम भारतीय आज तक ओढ़े-बिछाए जा रहे हैं। अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने लिए अंग्रजों ने जो तीन विश्व विद्यालय कलकत्ता यूनिवर्सिटी, बॉम्बे यूनिवर्सिटी और मद्रास यूनिवर्सिटी स्थापित कीं।

वे हैं तो आखिर गुलामी की दस्तावेज ही लेकिन आज भी चल रही है। क्या इन्हें बंद करना मौजूदा परिवेश में उचित होगा ।कलकत्ता और खासकर विक्टोरिया हाउस को प्रदूषण से बचने के लिए लाया गया द बंगाल स्मोक न्यूसेंस एक्ट 1905 तो आज भी वजूद में है। यूपी प्रोविंशियल एक्ट 1932, इंडियन पुलिस एक्ट, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, भारतीय दंड संहिता सब तो अंग्रेजों के जमाने की है। पुलिस की खाकी वर्दी का चलन सर हैरी बैनेट ने 1847 में किया था।खाकी का मतलब है खाक हो जाने वाला। वह खाकी वर्दी आज भी भारतीय पुलिसकर्मियों के वदन पर है। बात जब बदलने का आएगी तो हमें शिक्षा कानून, टैक्स कानून और पूरी भारतीय दंड संहिता में बदलाव करना होगा। केवल राजद्रोह कानून को हटाने या बदलने भर से बात नहीं बनेगी।

आपत्ति तो किसी भी बिंदु पर हो सकती है। किसी को भी हो सकती है और कभी भी हो सकती है। जहां तक अभिव्यक्ति कि आजादी की बात है तो यह भी तय होना चाहिए कि व्यक्ति को वही बोलना चाहिए जो जनहितकारी हो और किसी का दिल न दुखाए। देश के विकास में रोड़ा न अटकाए। विकास कार्य में व्यवधान डालने वालों,देश को टुकड़े-टुकड़े करने का दावा करने वालों, अपने घरों पर पाकिस्तानी झंडा फहराने या देश विरोधी नारे लगाने वालों, आतंकवादियों का साथ देने वालों की अभिव्यक्ति की आजादी को महत्व देना कितना जरूरी है, विचार तो इस पर भी होना है। जो राजनीतिक दल संविधान की हत्या का आरोप लगा रहे हैं, वे क्या इस देश को बताएंगे कि भारतीय संविधान की चादर पर संशोधनों के कितने पैबंद लग चुके हैं। भारतीय संविधान में भारतीय कहने के लिए क्या कुछ अपना है? वह कितना मौलिक है।

संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, सोवियत संघ, जापान और फ्रांस के उधार के कानूनों के आधार पर हम कब तक अपने विधि ज्ञान का बखान करते रहेंगे। भारत के अधिकांश कानून अंग्रेजों के जमाने के बने हैं। ज्यादातर के निर्माण की अवधि 1860 से 1946 के बीच की है। टोडरमल कानून के तहत पुश्तैनी काम का अधिकार का हवाला देते हुए बिहार में एक व्यक्ति ने गंगा नदी पर अपने मालिकाना हक का केस कर दिया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट में अशोक पांडेय नामक एक वकील ने वकीलों के कोट, गाउन और बैंड की वैधता पर सवाल उठा दिया है और कोर्ट ने इस बाबत केंद्र सरकार, बार काउंसिल ऑफ इंडिया और हाइकोर्ट प्रशासन से जवाब मांगा है।

देश की बड़ी अदालतों में आज भी अंग्रेजों की भाषा का ही वर्चस्व है। हिंदी से न्याय आंदोलन के जनक न्यायविद चंद्रशेखर उपाध्याय लंबे अरसे से संविधान की धारा 348 में संशोधन करने और बड़ी अदालतों में हिंदी और अन्य भारतीयों भाषाओं में कामकाज और निर्णय की मांग कर रहे हैं। अगर हम भारतीयता का सम्मान करते हैं तो जनहित में इतना तो कर ही सकते हैं।

कानून कोई भी बुरा नहीं होता। हम उसका उपयोग करते हैं या दुरुपयोग,अहमियत इस बात की है। सत्ता में जो भी दल होता है,वह अपने हिसाब से अपने विरोधियों को राह पर लाने के लिए कानून का डंडा भांजता है। ईमानदारी से कोई भी दल नहीं चाहता कि इस तरह के कानून समाप्त कर दिए जाएं। कानून बदलना या हटाना उतना जरूरी नहीं है जितना यह जरूरी है कि लोग आत्मानुशासित हों। कानून के फंदे में फंसने  जैसा कोई काम न करें।

अपने काम से काम रखें। दोष निकलना आसान होता है। सुधार कैसे हो, व्यवस्था ने बदलाव कैसे हो, विमर्श तो इस पर होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय बदलाव चाहता है तो विचार बुरा नहीं है लेकिन अंग्रेजों के जमाने का बहुत कुछ है। क्या-क्या बदला जाए। प्याज का छिलका उतारते जाइए, अंत में मिलना शून्य ही है। शून्य से शून्य ही निकलेगा और बचेगा भी शून्य ही। इसलिए भी आवश्यक है कि भारतीय संविधान को भारतीय जीवन मूल्यों और परंपराओं के अनुरूप नए सिरे से बनाया जाए। सहमति, असहमति के बीच, अभिव्यक्ति की आजादी के बीच  वैयक्तिक सुविधा के संतुलन का स्तर क्या है?

याचिकाकर्ता की मंशा और महत्वाकांक्षा का नीर-क्षीर विवेक भी होना चाहिए।बिना इसके हम मैकाले की उसी अवधारणा को पुष्ट करते रहेंगे कि भारतीयों के मामलों में फैसले तो आएंगे लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिलेगा? क्या इस देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका मैकाले के कानूनों से इस देश को राहत दिलाने के बारे में भी कभी चिंतन-मनन करेगी।

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