Mahant Digvijaynath

अहर्निश प्रासंगिक हैं युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ के विचार

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गोरखपुर । कर्ता के प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करने, विरासत पर गौरव की अनुभूति करने और गुरु के प्रति सम्मान प्रकट करने की सनातनी परंपरा की संवाहक गोरक्षपीठ में प्रतिवर्ष स्मृतिशेष गुरुजन की स्मृति में अध्यात्म और राष्ट्रीयता के सुर गुंजित होते हैं। अवसर होता है युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज (Mahant Digvijaynath) और राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की पुण्यतिथि पर साप्ताहिक श्रद्धांजलि समारोह का। इस वर्ष ब्रह्मलीन महंतद्वय की स्मृति में श्रीमद्भागवत महापुराण कथा 4 सितंबर से और समाज व राष्ट्र को प्रभावित करने वाले समसामयिक विषयों पर चिंतन-मंथन के सांगोष्ठिक कार्यक्रम 5 सितंबर से जारी हैं। इस साप्ताहिक कार्यक्रम के तहत आश्विन कृष्ण तृतीया पर 10 सितंबर (बुधवार) को ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 56वीं पुण्यतिथि पर तथा आश्विन कृष्ण चतुर्थी पर 11 सितंबर (गुरुवार) को ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 11वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन गोरक्षपीठाधीश्वर एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में किया जाएगा। पुण्य स्मरण का यह कार्यक्रम गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजयनाथ स्मृति सभागार में होगा जहां देशभर के प्रमुख संतजन उपस्थित रहेंगे।

पुण्यतिथि समारोह में बुधवार को ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) की स्मृतियों के जीवंत होने के इस अवसर पर यह जानना भी प्रासंगिक है कि उन्हें युगपुरुष क्यों कहा जाता है। भौतिक विद्यमानता न होने के बावजूद जो व्यक्तित्व अपने कार्यों-विचारों से अपने बाद की पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते हैं, सही अर्थों में युगपुरुष होते हैं। कारण, हरेक कालखंड में उनके बताए मार्गों, विचारों और आदर्शों की प्रासंगिकता रहती है। ऐसे ही युगपुरुष हैं ब्रह्मलीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ। वर्ष 1935 से 1969 तक नाथपंथ के विश्व विख्यात पीठ के कर्ता-धर्ता रहे ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ की बुधवार (आश्विन कृष्ण तृतीया) को 56वीं पुण्यतिथि है। पांच दशक से अधिक समय से उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को श्रद्धा भाव से न केवल नमन-स्मरण किया जाता है बल्कि उनपर अमल करने का संकल्प भी लिया जाता है। महंत जी न केवल गोरखनाथ मंदिर के वर्तमान स्वरूप के शिल्पी रहे बल्कि उनका पूरा जीवन राष्ट्र, धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, शिक्षा व समाजसेवा के जरिये लोक कल्याण को समर्पित रहा। तरुणाई से ही वह देश की आजादी की लड़ाई में जोरदार भागीदारी निभाते रहे तो देश के स्वतंत्र होने के बाद सामाजिक एकता और उत्थान के लिए। इसके लिए शैक्षिक जागरण पर उनका सर्वाधिक जोर रहा।

महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) का जन्म वर्ष 1894 में वैशाख पूर्णिमा के दिन चित्तौड़, मेवाड़ ठिकाना ककरहवां (राजस्थान) में हुआ था। उनके बचपन का नाम नान्हू सिंह था। पांच वर्ष की उम्र में 1899 में इनका आगमन गोरखपुर के नाथपीठ में हुआ। अपनी जन्मभूमि मेवाड़ की माटी की तासीर थी कि बचपन से ही उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति और स्वाभिमान से समझौता न करने की प्रवृत्ति कूट कूटकर भरी हुई थी। उनकी शिक्षा गोरखपुर में ही हुई और उन्हें खेलों से भी गहरा लगाव था। 15 अगस्त 1933 को गोरखनाथ मंदिर में उनकी योग दीक्षा हुई और 15 अगस्त 1935 को वह इस पीठ के पीठाधीश्वर बने। वह अपने जीवन के तरुणकाल से ही आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेते रहे। देश को स्वतंत्र देखने का उनका जुनून था कि उन्होंने 1920 में महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के समर्थन में स्कूल छोड़ दिया। उन पर लगातार आरोप लगते थे कि वह क्रांतिकारियों को संरक्षण और सहयोग देते हैं। 1922 के चौरीचौरा के घटनाक्रम में भी उनका नाम आया लेकिन उनकी बुद्धिमत्ता के सामने ब्रिटिश हुकूमत को झुकना पड़ा और उन्हें रिहा कर दिया गया।

श्रीराम मंदिर आंदोलन में ब्रह्मलीन महंतश्री की रही महती भूमिका

अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर के निर्माण को लेकर हुए आंदोलनों में गोरक्षपीठ की महती भूमिका से सभी वाकिफ हैं। ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) इस आंदोलन में नींव के पत्थर हैं। 1934 से 1949 तक उन्होंने लगातार अभियान चलाकर आंदोलन को न केवल नई ऊंचाई दी बल्कि 1949 में वह श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के नेतृत्वकर्ता भी रहे। 22-23 दिसंबर 1949 को अयोध्या में भगवान रामलला की मूर्ति प्रकट होने के नौ दिन पहले महंत दिग्विजय नाथ के नेतृत्व में अखंड रामायण के पाठ का आयोजन शुरू हो गया था। रामलला के प्रकट होने के समय महंत जी स्वयं वहां उपस्थित थे। पांच सौ वर्षों के इंतजार के बाद अयोध्या में प्रभु श्रीराम अपनी जन्मभूमि स्थित मंदिर में विराजमान हो चुके हैं। प्रभु रामलला के मंदिर निर्माण के लिए चले आंदोलन को उनके बाद उनके शिष्य महंत अवेद्यनाथ ने निर्णायक बनाया तो कोर्ट के फैसले के बाद मंदिर निर्माण की शुभ घड़ी तब आई जब राज्य की सत्ता का नेतृत्व भी गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं। ऐसे में जब भी अयोध्या के श्रीराम मंदिर का जिक्र होगा, तो वर्तमान गोरक्षपीठाधीश्वर के दादागुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) आप ही स्मरित होंगे।

पूर्वांचल में शैक्षिक क्रांति के अमर नायक हैं महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) 

महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) का नाम पूर्वांचल में शैक्षिक क्रांति लाने वाले नायक के रूप में अमर है। उन्होंने गोरखपुर और आसपास के क्षेत्रों के लिए शिक्षा की जो ज्योति जलाई, उससे आज पूरा अंचल प्रकाशित हो रहा है। शिक्षा क्रांति के लिए उन्होंने 1932 में महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना की। एक किराए के मकान में परिषद के अंतर्गत महाराणा प्रताप क्षत्रिय स्कूल शुरू हुआ। 1935 में इसे जूनियर हाईस्कूल की मान्यता मिली और 1936 में हाईस्कूल की भी पढाई शुरू हुई। नाम ‘महाराणा प्रताप हाई स्कूल’ हो गया। इसी बीच महंत दिग्विजयनाथ के प्रयास से गोरखपुर के सिविल लाइंस में पांच एकड भूमि महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद को प्राप्त हो गयी और महाराणा प्रताप हाईस्कूल का केन्द्र सिविल लाइंस हो गया तथा देश के आजाद होते समय यह विद्यालय महाराणा प्रताप इन्टरमीडिएट कालेज के रुप में प्रतिष्ठित हुआ। 1949-50 में इसी परिसर में महाराणा प्रताप डिग्री कालेज की स्थापना महंतजी की अगुवाई में हुई। शिक्षा को लेकर उनकी सोच दूरदर्शी और निजी हित से परे थी। यही वजह थी कि उन्होंने 1958 में अपनी संस्था महाराणा प्रताप डिग्री कालेज को गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु दान में दिया। बाद में परिषद की तरफ से उनकी स्मृति में दिग्विजयनाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय की स्थापना की। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद्‌ द्वारा वर्तमान में करीब पांच दर्जन शिक्षण, चिकित्सकीय संस्थाएं गोरखपुर क्षेत्र में संचालित हो रही हैं। इनमें प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय, चिकित्सा शिक्षा एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा तक के प्रकल्प व अस्पताल सम्मिलित हैं।

राजनीति में भी गोरक्षपीठ की लोक कल्याण परंपरा को आगे बढ़ाया

महंत दिग्विजयनाथ (Mahant Digvijaynath) ने राजनीति में भी गोरक्षपीठ की लोक कल्याण की परंपरा को ही आगे बढ़ाया। वर्ष 1937 में वह हिन्दू महासभा में शामिल होकर उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की विधिवत शुरुआत की। महंत जी ने 1944 में हिन्दू महासभा के प्रांतीय अधिवेशन का ऐतिहासिक आयोजन गोरखपुर में कराया। महासभा के राजनीतिज्ञ होने के कारण 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के मिथ्यारोप में उन्हें बंदी बना लिया गया लेकिन सरकार को 1949 में दस माह बाद ससम्मान बरी करना पड़ा। राष्ट्र के हित में उन्होंने 1956 में पृथक पंजाबी राज्य के लिए मास्टर तारा सिंह के आमरण अनशन को सूझबूझ से समाप्त कराया। वह 1961 में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष (हिन्दू राष्ट्रपति के रूप में) निर्वाचित हुए। धर्म व सामाजिक एकता के क्षेत्र में भी उनका योगदान अतुलनीय है। 1939 में अखिल भारतीय अवधूत भेष बारहपंथ योगी महासभा की स्थापना कर पूरे देश के संत समाज को लोक कल्याण व राष्ट्रहित के लिए एकजुट करने के लिए भी उन्हें याद किया जाता है। 1960 में हरिद्वार में अखिल भारतीय षडदर्शन सभा सम्मेलन की अध्यक्षता, 1961 में दिल्ली में अखिल भारतीय हिन्दू सम्मेलन का आयोजन व 1965 में दिल्ली में अखिल विश्व हिन्दू सम्मेलन का आयोजन भी उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों में शामिल हैं। 1967 में गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए महंतश्री 1969 में ब्रह्मलीन हुए लेकिन उनके व्यक्तित्व व कृतित्व की अमरता अहर्निश बनी हुई है।

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