गांधी को पुष्पांजलि और शांति से किनारा

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सियाराम पांडेय ‘शांत’

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर पूरे देश ने उन्हें याद किया। किसी ने सदभावना दिवस मनाकर और किसी ने शहीदी दिवस मनाकर। राजनीति दोनों ही परिस्थितियों में उभयनिष्ठ रही। किसान संगठनों के नेताओं ने एक ओर तो गांधी जी के बलिदान दिवस पर एक दिन का उपवास रखा और हाल के दिनों में दिल्ली में हुई हिंसा का प्रायश्चित किया। वहीं दूसरी ओर गाजियाबाद और टीकरी बार्डर पर अपने आंदोलन को भी तेज किया।

देशवासियों से किसानों के साथ जुड़ने की भी अपील की। राजनीतिक दलों ने भी महात्मा गांधी को याद किया। उनके आदर्शों और सिद्धांतों पर अमल करने की बात कही । एक राजनीतिक दल ने तो वीडियो ही वायरल किया। मतलब खुद को गांधी भक्त ठहराने में कोई किसी से पीछे नहीं रहा। गांधी जी ने कहा था कि गांव और किसान के दुखी होने का मतलब है कि देश सुखी नहीं रह सकता। किसानों की राजनीति कर रहे किसान संगठनों को भी पता है कि देश का 95 प्रतिशत किसान अपने घर में हैं और केवल 5 प्रतिशत किसान पूरा तमाशा बनाए हुए हैं।

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ये पांच प्रतिशत वे किसान हैं जो बड़ी जोत के मालिक हैं। जिनके तार विदेशों से जुड़े हुए हैं। जिनके परिजन आस्ट्रेलिया और कनाडा में रहते हैं। छोटे किसानों के पास पहले हल और बैल हुआ करते थे लेकिन अब उनके पास वह भी नहीं है। ट्रैक्टर रखने की तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते। किसान नेता ही नहीं, विपक्षी दल भी आरोप लगा रहे हैं कि किसान आंदोलन को नष्ट करने की केंद्र सरकार साजिशकररही है। वह किसानों से बात नहीं कर रही है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि जो प्रस्ताव किसानों को दिया गया है, उस पर सरकार कायम है।

विपक्ष किसान आंदोलन के जरिये लिटमस टेस्ट कर रहाहै। सरकार झुके तो दूसरे समुदायों को आंदोलन के मैदान में उतारे। सरकार भी विपक्ष के इस खेल को समझ रही है। राहुल गांधी, अखिलेश यादव, प्रियंका वाड्रा सभी एक राय हैं कि तीनों कृषि कानून रदद कर दिए जाएं लेकिन इसमें कमी क्या है। अगर कमी है तो उसमें संशोधन क्या किए जा सकते हैं, इस ताफ बोलने को एक भी नेता तैयार नहीं है। सरकार को भी पताहै कि अगर उसने कानू वापस लिए तो देश के 95 प्रतिशत किसान बेसहारा हो जाएंगे। इस आंदोलन का जिस तरह राजनीतिकरण हो रहाहै, वह सबके सामने आ गया है।

प्रधानमंत्री ने बजट सत्र से पूर्व सर्वदलीय बैठक की औपचारिकता का निर्वाह किया है। वर्चुअल बैठक में शामिल विपक्षने फिर वही पुराना रागा अलापा है, तीनों कानून सरकार वापसले ले। तर्क यह दिया जारहा है कि राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करने पर व्याख्यान न दिया जाए, हर आंदोलनकारी किसान यहां और उसके बच्चे सीमाओं पर देश के लिए लड़ रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा को तो केंद्र सरकार की कार्रवाई में भी सांप्रदायिक रंग नजर आने लगा है। आंदोलन स्थलों पर इंटरनेट सेवाएं बहाल करने की मांग की जा रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो विरोध -प्रदर्शन और किया जाएगा।

एक पक्ष है कि मानने को तैयार नहीं है। वह पुलिस वालों पर तलवार भांजने से भी गुरेज नहीं कर रहा और ट्रैक्टर ट्रॉलियां बुलाकर सरकार पर दबाव डाल रहा है। अन्य देशवासियों का जीना दूभर कर रहा है। कहा जा रहा है कि राकेश टिकैत का आंसू बहा है। अब सड़कों पर सैलाब बहेगा। यह सैलाब जल का होगा या रक्त का, यह तो सुस्पष्ट नहीं किया गया लेकिन इस मुदछे पर जिस तरह की राजनीतिक बयानबाजी हो रही है, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। लाल किले और राष्ट्रध्वज के निरादर की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से कहा है कि उनकी सरकार प्रदर्शनकारी किसानों की ओर से उठाए गए मुद्दों का बातचीत के जरिए समाधान निकालने का निरंतर प्रयास कर रही है।

तीन कृषि कानूनों को लेकर केंद्र सरकार ने जो प्रस्ताव दिया था, उस पर वह आज भी बरकरार है। कानून व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। किसानों ने इच्छा जाहिर की थी कि वह भी जवानों की तरह ट्रैक्टर परेड निकालना चाहती है लेकिन उन्होंने किस तरह ट्रैक्टर परेड निकाली, किस तरह तलवारबाजी की, सुरक्षाबलों पर लाठियां भांजी, यह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि पाकिस्तान किसान आंदोलन की आड़ में पंजाब में हथियारों की खेप भेज रहा है। सवाल यह है कि जब आपको पता है कि ऐसाहो रहा है तो आप क्या कर रहे हैं?

बड़ी मुश्किल से यह देश कोरोना से उबर रहा है लेकिन इस देश के कतिपय नेता और बुद्धिजीवी इसके विकास पथ पर रोड़ा बनकर खड़े हो गए हैं। वे चाहते हैं कि उनके इस आचरण पर सरकार मूकदर्शक बनी रहे। कोई कार्रवाई न करे। आंदोलन के लिए किसी को भड़काना और देश का वातावरण शांत न होने देना भी गुनाह है, ऐसे लोग चाहे जिस किसी अहम पद पर क्यों न हों, कितने भी रसूखदार क्यों न हो, उन पर कार्रवाई तो होनी ही चाहिए। सरकार धैर्य का परिचय दे रही है। उसकी इस भूमि को सराहा जाना चाहिए लेकिन साथ ही इस बात को विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि धैर्य की अपनी सीमा होती है। धैर्य का टूटना किसी विप्लव से कम नहीं होता। सरकार के विवेक धैर्य और संयमशीलता को उसकी कमजोरी मान बैठना उचित नहीं होगा। ताली दोनों हाथ से बजती है। विपक्ष और किसान संगठन एक हाथ से ताली बजवाना चाहते हैं जो मुमकिन नहीं है। गांधी जी को पुष्पांजलि और सत्य, अहिंसा और शांति से किनारा, यह तो नहीं चलेगा।

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