बढ़ती जनसंख्या देश के सुखी और समृद्ध भविष्य पर लगाती प्रश्न चिन्ह!

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संख्या मायने रखती है। अधिक हो तो भी, कम हो तो भी। संख्या सुविधाजनक कम, समस्याजनक ज्यादा होती है। आज जो चीज प्रिय लगती है, कल उससे मन उचाट हो जाता है। आकर्षण की भी अपनी सीमा है। आंखें नवीनता में ही सौंदर्यबोध तलाशती हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति में हर क्षण बदलाव होता है। वह तो आदमी ही है जो बदलाव से भागता है। भय खाता है। आदमी स्थिरता चाहता है। कबीरदास को पता था कि संसार में स्थिर कुछ भी नहीं है। इसीलिए वे अपनी प्रार्थना में कहते हैं कि ‘का मांगू कुछु थिर न रहाई। देखत नैन चलाजग जाई ।’भारतीय मनीषियों ने भी यही कहा है कि जितनी आवश्यकता हो, प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए।

विवाह में कन्यादान से पूर्व दूल्हे को कहना पड़ता है- ‘नातिचरामि । ’अर्थात मैं अतिचार नहीं करूंगा। पत्नी के साथ भोग में आदर्श स्थिति यानी संयम बनाए रखूंगा। सवाल यह है कि अगर विवाह या निकाह के उद्देश्यों को समझा गया होता तो देश कोजनसंख्याजन्य चुनौतियों से दो-चार न होना पड़ता। दुनिया के कई देशों को भारत ने जितने कोवैक्सीन और कोविशील्ड दिए थे, उतने में ही उनके नागरिकों को कोरोनारोधी टीके की दोनों डोज लग गई और भारत अपनी एक अरब 38 करोड़ की आबादी को टीका लगवाने में आज भी परेशान है।

आबादी संतुलित होती तो वह भी मजे में होता। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और यहां तक कि भरण-पोषण तक की व्यवस्था करने में अत्यधिक आबादी बाधक तो बनती ही है। इसीलिए कहा गया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत। पुत्र कम हो लेकिन बलवान हो, नीतिमान हो। बुद्धिमान हो। कई पुत्र हों लेकिन रुग्ण और दुर्बुद्धि हों, निठल्ले हों तो वे माता-पिता पर भी भार ही होते हैं। समाज और राष्ट्र भी उनका बोझ उठाते हुए थक जाता है। इसलिए अगर उत्तर प्रदेश सरकार ने जनसंख्या नीति का मसौदा तैयार किया हैऔर उसे कानून का रूप देना चाहती है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। राज्यसभा में तीन सांसदों ने प्राइवेट मेंबर बिल पेशकरदिया है। जाहिर है, इन सबका उददेश्य जनसंख्या नियंत्रण ही है।

वे कठोर जनसंख्या नीति चाहते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट भी सरकारको समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश दे रही है। छोटा परिवार-सुखी परिवार का नारा हम सबको याद रखना चाहिए। जितना ही छोटा परिवार होगा, उसकी खुशहाली का ग्रॉफ उतनाही बढ़ जाएगा। जिंदगी को सुंदर बनाना है तो उस पर विचार भी करना चाहिए। माता सीताने भी दो पुत्रों को ही जन्म दिया था। ‘दुई सुत सुंदर सीता जाये। ’ राम राजा थे। हर भारतवासी राजा नहीं है। अगर वह जनसंख्या नीति का पालन करें तो सरकार को नियम बनाना पड़ा रहा है,तो यह बहुत अनुकूल स्थिति नहीं है। देशवासियों को अपन ेलिए अनुशासन तो खुद ही निर्धारित करना होगा। कुछ लोग इसमें राजनीति के दर्शन भी कर सकते हैं। करने भी चाहिए लेकिन यह तो हम पर निर्भर करता है कि हम अपने मामल ेमें किसी को राजनीति का अवसर देते हैं या नहीं। देश सबका है। इसलिए हर भारतीय को देश की जरूरतें समझनी होंगी।

उतने ही बच्चे पैदा करने होंगे जिससे देश की जरूरतें पूरी हों और दिक्कतें न बढ़ें। लोकतंत्र में जनसंख्या अहमियत रखती है, यह सच है लेकिन जब बात शिक्षा- स्वास्थ्य की हो, देश की मजबूती की हो तो व्यक्ति को मर्यादा तय करनी होती है और यही लोकहित का तकाजा भी है। समस्या छोटी हो या बड़ी, वह समाधान चाहती है। उसे राजनीति और धर्म के चश्मे से देखना उचित नहीं है। इसलिए भी इस नीति पर राजनीति करने से बेहतर यह होगा कि देश की नयी पीढ़ी को ऊर्जावान, क्षमतावान,ज्ञानवान, निरोग और शक्तिशाली बनाने की रणनीति पर काम किया जाए।

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