…और रामपुर तिराहा कांड का दंश साथ ले गयी कद्दावर कांग्रेस नेता

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चंद्रशेखर पंडित भुवनेश्वर दयाल उपाध्याय

वर्ष 2005, रात्रि लगभग 2 बजे का समय, देहरादून में मुख्यमंत्री का आवास, कक्ष संख्या-2, मुजफ्फरनगर की निचली अदालत में बहुचर्चित रामपुर तिराहा कांड (Rampur Tiraha Incident) में राज्य-आंदोलनकारियों का ‘पक्ष’ खारिज हो गया था। दोपहर की इस खबर के बाद पूरे राज्य में आक्रोश फैल गया था। गुस्सा इतना था कि ‘माणा’ से लेकर बनवसा तक राज्य सरकार के पुतले फूंके जा रहे थे, जबर्दस्त नारेबाजी हो रही थी। कभी भी इस मामले में कतई चिंतित न रहने वाले लोग न्यूज चैनल पर भाषण बखार रहे थे तो कहीं जार-जार आंसू बह रहे थे, लेकिन मामले के मूल की चर्चा नामौजूद थी। वह यह कि राज्य इस मामले में ‘पक्ष’ ही नहीं था, जो अजानकार, अचिंतित, अकर्मण्य नौकरशाही के कारण था। चिंतित वयोवृद्ध मुख्यमंत्री पंडित नारायणदत्त तिवारी और मैं आगे की रणनीति बना रहे थे, श्रीमती इंदिरा हृदयेश जी भी लगभग 11 बजे कक्ष में आ चुकी थीं। मैंने बड़े बाबूजी (पंडित नारायण दत्त तिवारी) को राज्य के एडिशनल एडवोकेट जनरल पद से अपना इस्तीफा सौंपा, एक क्षण उनकी आंखों में ऐसा भाव उभरा, जो मुझे अंदर तक कचोट गया था, उनकी आंखों में आंसू थे। मेरी आंखों में भी आंसू थे। इंदिरा हृदयेश (Indira Hridayesh) की भी आंखें गीली थी। हम तीनों रो रहे थे। तिवारी जी ने कब अपने आंसुओं को रोका, मुझे मालूम नहीं, फिर एकदम कड़क आवाज में बोले – ‘न दैन्यम न पलायनम’ और मेरा इस्तीफा नष्ट कर डस्टबिन में फेंक दिया। भावुक तिवारी जी ने उस दिन कहा था, जिन लोगों पर मैंने सबसे ज्यादा भरोसा किया, आज उन्होंने उत्तराखंड और मेरी पीठ को अपने खंजर से लहूलुहान कर दिया है। फिर मुझसे बोले, राज्य की यह सबसे बड़ी जि़म्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं, सब कुछ ठीक करो। उस दिन, उस समय की सबसे ताकतवर मंत्री इंदिरा जी (Indira Hridayesh) ने मेरी इस मांग का जोरदार समर्थन किया था कि राज्य को इस मामले में आन्दोलनकारियों की तरफ से ‘पक्ष’ बनना चाहिए।

तिवारी जी के आदेश एवं शुभाशीष मिलने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में मामले की जोरदार पैरवी की गयी। सटीक योजना एवं प्रबंधन की बदौलत मामले की पुनर्निरीक्षण याचिका स्वीकार कर ली गयी। अदालत में मामला फिर जीवित हो गया। राज्य आंदोलनकारियों को मामले में न्याय मिलने की उम्मीद को पंख लग गए।

समय बीता, 11 जनवरी 2020 को हल्द्वानी हलसनी में उत्तराखंड पत्रकार महासंघ के द्वितीय महाधिवेशन में इंदिरा हृदयेश जी (Indira Hridayesh), सतपाल महाराज व मुझे मंच से बोलना था। मंच के बाद इंदिरा जी से अनौपचारिक बातें शुरू हो गयीं। वैसे उनसे लगातार बात-मुलाकात होती रहती थी। उस दिन चर्चा में फिर रामपुर तिराहा कांड आ ही गया, उन्होंने फिर दोहराया कि आपकी इस मांग के साथ में मैं आज भी हूं कि मामले में राज्य को ‘पक्ष’ बनना चाहिए। फिर बोलीं – आपके द्वारा मामले की पुनर्निरीक्षण याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्वीकार कराने के बाद मैंने तिवारी जी को सुझाव दिया था कि आपको तत्काल राज्य का एडवोकेट जनरल या निदेशक ‘अभियोजन’ बना दिया जाय, तिवारी जी इस सुझाव से सहमत थे, उन्होंने तत्काल राज्य में एक स्वतंत्र अभियोजन निदेशालय के प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान कर दी थी। वह आपको इस पद पर लाना चाहते थे, फिर बोलीं – अभी हाल ही में मैंने निदेशक ‘अभियोजन’ पद पर नियुक्ति की पत्रावली आरटीआई के माध्यम से मंगवाई थी, उसमें लिखी गयी टीपों को देखकर अचंभित हूं, सिर्फ आपको इस पद पर आने से रोकने के लिए क्या लोग इतना दुस्साहस भी कर सकते हैं? अगर मामला अदालत में चला गया तो सारे जिम्मेदार सलाखों के पीछे होंगे। मैंने हंसकर कहा कि अब इस पद पर आने की इच्छा भी समाप्त हो गयी है। पूरे 7 साल बीत गए हैं, तब उन्होंने पीठ पर धौल जमाया और कहा – 2022 में कांग्रेस आ रही है। आप इस जिम्मेदारी को संभालने के बाद रामपुर तिराहा मामले में राज्य को आंदोलनकारियों की तरफ से ‘पक्ष’ बनाना और शहीदों के परिजनों को न्याय दिलाना। मैंने हामी भरी थी। आज इंदिरा जी के अचानक अवसान पर पीछे मुड़कर देखता हूं तो रामपुर तिराहा कांड में उनके ‘दंश’ का स्मरण कर मन विचलित हो गया है।

तीरथ जी को मुख्यमंत्री बने पूरे 67 दिन बीत गए हैं, मैं उनसे बमुश्किल 10 घर दूर ही रहता हूं, शीर्ष माध्यम से 6 बार उनसे भेंट करने की सूचना पहुंचाई जा चुकी है, परंतु अपने पार्टी के स्थापना पुरुष के परिजन से मिलने का उनके पास समय नहीं है। तीरथ जी मेरे पुराने मित्र रहे हैं। लखनऊ में उनके ओसीआर वाले फ्लैट में 6 माह रहकर ही मैंने जज की तैयारी की है, उनके सहायक, अनुचर फोन नहीं उठाते, फोन उठाते हैं तो सदैव उनको मीटिंग में बताते हैं। निजाम और काडर के बीच में संवादहीनता बढ़ रही है, मुझे उनसे मिलकर रामपुर तिराहा कांड (Rampur Tiraha Incident)  पर ही चर्चा करनी थी, लेकिन अब मिलने का इरादा मैंने त्याग दिया है।

दूसरी तरफ इंदिरा जी (Indira Hridayesh) को आज याद करते हुए यह उल्लेख होना ही था कि जिस दिन कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता हरीश रावत ने फोन पर मेरे स्वास्थ्य की जानकारी ली एवं ‘हिन्दी से न्याय’ इस देशव्यापी अभियान पर मुझे बधाई दी। खबर आते ही इंदिरा जी का फोन आया, पहले आहत – आत्मीयता में कहा, तबीयत का क्यों नहीं बताया, फिर बोलीं – जल्दी ही घर आऊंगी, मगर ऐसा हो नहीं पाया। उनके अवसान पर उनके याद करने की सार्थकता यही है कि रामपुर तिराहा कांड में सभी लोग एकसाथ बैठकर एक सार्थक-परिणामकारी योजना बनायें। गोलोक धाम में इंदिरा जी (Indira Hridayesh) कदाचित यह सब अवश्य सुनेंगी-देखेंगी, इस मुद्दे पर अतृप्त उनकी मांग-इच्छा पूर्ण होने पर उनका आशीष ही मिलेगा। अगर जिम्मेदार लोग यह पढ़ रहे हों तो इस पर विचार जरूर करें।

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