Site icon News Ganj

आंदोलन नहीं, काम से दिखती है ताकत

Protest

Protest

सियाराम पांडेय ‘शांत’

इस देश में जितने भी कानून हैं। अगर उन्हीं का शत-प्रतिशत क्रियान्वयन हो जाए तो नए कानूनों की जरूरत ही न पड़े। देश में हमेशा सख्त कानून बनाने की बात उठती है लेकिन कभी कोई यह नहीं पूछता कि जो कानून पहले से वजूद में हैं, उनका अनुपालन कितना हुआ। हुआ भी या नहीं हुआ। तीन कृषि कानूनों के विरोध में भारतीय किसान यूनियन की ओर से देश भर में चक्का जाम करने का ऐलान हो चुका है। दिल्ली में दो माह से अधिक समय से किसानों का आंदोलन चल रहा है। किसान नेताओं की चेतावनी यह है कि जब तक तीनों कृषि सुधार कानून वापस नहीं लिए जाते तब तक वे दिल्ली की सीमा पर आंदोलन करते रहेंगे।

राकेश टिकैत ने कहा था कि वे नवंबर तक यहां आंदोलन करेंगे। आज कह रहे हैं कि सरकार इस आंदोलन को ज्यादा लंबा खींचना चाहती है। इस तरह के विरोधाभासी बयान देकर वे किसे गुमराह कर रहे हैं, इतना तो सुस्पष्ट होना ही चाहिए। सरकार क्यों चाहेगी कि कोई भी किसान आंदोलन करे क्योंकि एक आंदोलन से सुरक्षाकर्मियों की तैनाती का जो आर्थिक और प्रशासनिक दबाव बनता है, उसे कोई आंदोलनकारी समझ भी नहीं सकता।

कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कहा है कि उन्होंने तो किसानों से हर बैठक में यही पूछा है कि वे कानून में काला क्या है, इतना ही बता दें। विपक्षी दलों से भी उनका यही सवाल है, उन सवालों का जवाब किसी के भी पास नहीं है लेकिन इसके बाद भी तीनों कानूनों को वापस लिए जाने की मांग की जा रही है। यह कितना व्यावहारिक और तर्कसंगत है, विचार तो इस बिंदु पर होना चाहिए। राज्यसभा में उन्होंने कहा है कि दुनिया जानती है कि पानी से खेती होती है लेकिन खून से खेती सिर्फ कांग्रेस कर सकती है।

मतलब सीधे तौर पर सरकार ने यह संदेश देने का काम किया है कि किसानों के समूचे आंदोलन की सूत्रधार कांग्रेस ही है। उन्होंने कहा है कि पंजाब सरकार ने जो अनुबंध की खेती का कानून बनाया है, उसमें अनुबंध तोड़ने पर किसान को जेल भेजने की व्यवस्था है लेकिन केंद्र सरकार के कानून में किसी भी तरह की असहमति की स्थिति में किसान अपना अनुबंध खत्म कर सकता है और उसे जेल भी नहीं जाना पड़ेगा। उन्होंने देश में उल्टी गंगा बहने की भी बात कही है। मतलब साफ है कि इस मुदृदे पर कांग्रेस बेनकाब हो रही है।

इमरान खान ने फिर गाया कश्मीर राग, बोले- यूएन समझौते से निकले हल

नरेंद्र तोमर अगर केवल इसे पंजाब के किसानों का आंदोलन कह रहे हैं और यह आरोप लगा रहे हैं कि वहां के किसानों को बरगलाया गया है तो इसके अपने निहितार्थ है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष से लेकर छुटभैये नेता तक यही कह रहे हैं कि कृषि कानून वापस ले लिया जाना चाहिए लेकिन क्यों वापस ले लिया जाना चाहिए। इसका जवाब संभवतः किसी के भी पास नहीं है। जब सरकार सुस्पष्ट कर चुकी है कि कोई किसानों की जमीन हड़पना तो दूर, उसकी ओर बदनीयती से देख भी नहीं सकता। न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था लागू रहेंगी। मंडियां खत्म नहीं होंगी बल्कि कई अत्याधुनिक मंडिया बनाई जाएंगी । यह बात प्रधानमंत्री तक कह चुके हैं।

बजट भाषण में भी आधुनिक कृषि मंडियां बनाने पर जोर दिया गया है और इसके लिए बजट व्यवस्था भी की गई तो शक की गुंजाइश बचती ही कहां है। संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है कि वह देश भर में चक्का जाम इसलिए करना चाहती है कि सरकार को किसानों की ताकत का पता चले। राकेश टिकैत चुनाव लड़े थे और उन्हें कितने वोट मिले थे, यह किसी को बताने और जताने की जरूरत नहीं है। नरेंद्र तोमर ने ठीक ही कहा है कि उनकी सरकार ने सहानुभूतिपूर्वक डेढ़ साल तक कृषि सुधार कानूनों को अगर न लागू करने का प्रस्ताव रखा था तो इसका यह अर्थ हरगिज न निकाला जाए कि मौजूदा कृषि सुधार कानून में कोई खोट है।

सदाशयता का गलत अर्थ निकालकर देश को गुमराह करने की जो राजनीतिक प्रवृत्ति विकसित हो रही है, इससे किसी का भी कोई भला संभव नहीं है। किसान नेता और विपक्ष दरअसल एक ही काम कर रहे हैं कि वे सरकार का समय बर्बाद कर रहे हैं। इस देश का संविधान और भारतीय लोकतंत्र हर किसी नागरिक को असहमति का अधिकार देता है, उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है लेकिन देश के व्यापक हितों पर हैंगओवर होने की इजाजत किसी को भी नहीं देता। एक व्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं समाप्त हो जाती है जहां से दूसरे की स्वतंत्रता आरंभ होती है।

हम स्वतंत्र हैं लेकिन परम स्वतंत्र नहीं है। हमारी स्वतंत्रता पर लोकतांत्रिक और संवैधानिक मर्यादा का अंकुश है। कबीरदास ने भी लिखा है कि लोक, वेद, कुल की मरजादा इहै गले की फांसी। भारतीय संस्कृति और सभ्यता भी हमें अपने हित के लिए दूसरों को दुख देने का पाठ नहीं पढ़ाती फिर लोग अपने छोटे स्वार्थ के लिए देश का बहुत बड़ा नुकसान करने पर आमादा कैसे हो जातें हैं? यह देखने-समझनें और मंथन करने वाली बात है। तुलनात्मक नजरिये से भी देखा जाए तो नरेंद्र मोदी सरकार किसानों के हित में काम कर रही है। जितना काम उसने किया है, उतना काम किसी ने भी नहीं किया है।

तमाम कृषि परियोजनाएं दशकों तक लटकी रहीं, उनकी किसी ने सुध ही नहीं ली। मोदी सरकार ने उन परियोजनाओं को अंजाम तक पहुंचाया। इसके बाद भी विपक्ष का तर्क है कि सरकार अपने काम का श्रेय ले रही है। जो काम करेगा, श्रेय लेने का हक तो उसी को है। विपक्ष के तर्क में दम हो सकता है कि योजना तो उसने आरंभ की थी लेकिन दूसरा सवाल यह भी उससे होना चाहिए कि उसे पूरा क्यों नहीं किया? जीवन एक जंग है, इसे सभी अपने-अपने तरीके से लड़ते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे विजेता हो जाते हैं।

विजेता होने के लिए जीतना जरूरी होता है। हारे हुए लोग, चाहे वे राजनीति के ही क्यों न हों, अपना मनोबल खो देते हैं। प्रदर्शन से किसी दल की ताकत का पता नहीं चलता। उसकी ताकत का पता चलता है उसके काम से। उसके जनहितकारी प्रयासों से। जनहित ही किसी भी राजनीतिक दल का असली धन है। जनता का समर्थन तभी मिलता है जब आप उसके काम करते हैं। जनता को परेशानी में डालना और उसके अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति करना किसी भी लिहाज से जनसमर्थन पाने का यथेष्ठ हथियार नहीं हो सकता।

राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना ही होगा कि वे जनहित के कितने नजदीक खुद को पाते हैं। जब वे अपनी कथनी और करनी का अंतर करेंगे तभी सही राह पर बढ़ने का आत्मबल हासिल कर सकेंगे। जो नेता जननायक हुए हैं, उनके कामों के बारे में जानना-समझना ही असल ताकत है। जिस नेता के पास सच और झूठ के बीच का अंतर जानने का बल नहीं है, वह देश का मनोबल नहीं बढ़ा सकता। उसे सकारात्मक ऊर्जा से ओत-प्रोत नहीं कर सकता।

Exit mobile version