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गरीब सवर्णों को आरक्षण और राजनीतिक छटपटाहट

Reservation

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सियाराम पांडेय ‘शांत’

फैसले छोटे हों या बड़े, निजी हों या अदालती, स्थानीय हों या ऐतिहासिक,जीवन की दशा और दिशा बदलते ही हैं। फैसलों का अपना महत्व होता है और वे आत्मचिंतन की संभावनाओं को निरंतर जीवंत और जागृत बनाए रखते हैं। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की संविधान पीठ ने 3:2 के बहुमत से शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण (Reservation) का प्रावधान करने वाले 103वें संविधान संशोधन की वैधता को कायम रखा है। दरअसल यह निर्णय तो आजादी के तत्काल बाद ही लिया जाना चाहिए। ऐसा तो था नहीं कि जिस समय देश आजाद हुआ तब दलित और पिछड़ा वर्ग के लोग ही आर्थिक रूप से कमजोर थे। सवर्णों में ऐसे गरीबों की बहुत बड़ी संख्या थी जो वर्ष 1950 से लेकर आज तक आरक्षण और सरकारी सुविधाओं की प्राप्ति के मामले में केंद्र और प्रांतीय सरकारों की उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। सर्वोच्च  न्यायालय के इस निर्णय से जब जागे तभी सवेरा की तर्ज पर अवश्य ही उनके घावों पर थोड़ा मरहम लगेगा लेकिन यह व्यवस्था उनकी भारी संख्या को देखते हुए काफी होगी, ऐसा कहना कदाचित उचित नहीं होगा। दरअसल यह सवाल संविधान के संकट का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्रगति और संसाधनों में उचित सहभागिता का है। वाजिब हक के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करना राष्ट्र और उसके नायकों का परम कर्तव्य बनता है। यह और बात है कि गरीब सवर्णों का मार्ग और अधिक कंटकाकीर्ण करने की दुरभिसंधियां कुछ शातिर ताकतें निरंतर करती रहीं। अभी भी कर रही हैं और निकट भविष्य में भी करती रहेंगी।

वर्ष 2019 में जब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया तो अलग—अलग 40 याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दायर कर दी गईं। इसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए? जाहिर सी बात है कि याचिकाकर्ता नहीं चाहते कि गरीब सवर्णों का भी भला हो। विकास की दौड़ में वे भी भरत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे। शीर्ष अदालत के पांच न्यायाधीशों में तीन अगर यह मानते हैं कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण कोटा (EWS Reservation Quota) संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता तो मुख्य न्यायाधीश समेत दो न्यायमूर्ति उससे असहमति जताने में भी पीछे नहीं रहते। प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने केंद्र द्वारा 2019 में लागू किए गए 103वें संविधान संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली 40 याचिकाओं पर चार अलग-अलग फैसले सुनाए। न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला ने कानून को बरकरार रखा, जबकि न्यायमूर्ति  उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने इसे रद्द कर दिया। एक ही मामले में चार अलग-अलग फैसलों का आना भारत की मुंडे—मुंडेमतिर्भिन्ना की संस्कृति का ही झंडा बुलंद करता है। अनेकता में एकता कैसे बनाई जा सकती है, इसका भी संकेत देता है। अदालत भी अपने इस निर्णय में समतावादी समाज के लक्ष्य की ओर एक सर्व समावेशी तरीके से आगे बढ़ने की पक्षधर है। साथ ही यह भी मानता है कि 103 वें संविधान संशोधन को आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के कल्याण के लिए उठाए गए संसद के सकारात्मक प्रयास के रूप में देखना चाहिए। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने यह नसीहत भी दी कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक समता  और कल्याण सुनिश्चित करना है, लेकिन यह अनिश्चितकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए, ताकि यह निहित स्वार्थ न बन जाए।

अकादमिक जगत से जुड़े मोहन गोपाल ने मामले में 13 सितंबर को पीठ के समक्ष याचिका दाखिल की थीऔर कहा था कि ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण को कपटपूर्ण  और आरक्षण की अवधारणा को नष्ट करने का बैकडोर प्रयास है। तमिलनाडु का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नाफाडे की दलील थी कि आर्थिक मानदंड वर्गीकरण के लिए आधार नहीं हो सकता और इस ईडब्ल्यूएस आरक्षण को कायम रखे जाने पर शीर्ष न्यायालय को इंदिरा साहनी (मंडल) फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। वहीं, दूसरी ओर अटार्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल ने संशोधन का पुरजोर बचाव करते हुए कहा था कि इसके तहत मुहैया किया गया आरक्षण अलग है और सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा से छेड़छाड़ किये बगैर दिया गया है।

संविधान के  मूल ढांचे  के सिद्धांत की घोषणा दरअसल 1973 में केशवानंद भारती मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय कर चुका है। न्यायालय ने उस दौरान कहा था कि संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं किया जा सकता। यह और बात है कि न्यायालय के इस निर्णय के साथ ही इस पर राजनीति भी शुरू हो गई है और नफा—नुकसान की गणित भी बिठाई जाने लगी है। कांग्रेस के महासचिव जयराम रमेश को लगता है कि यह संवैधानिक संशोधन 2005-06 में डॉ.मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा मेजर सिन्हो आयोग का गठन कर  शुरू की गई प्रक्रिया का परिणाम है। सिन्हो आयोग ने जुलाई, 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। इसके बाद व्यापक रूप से उस पर चर्चा की गई और 2014 तक विधेयक तैयार कर लिया गया। मोदी सरकार को विधेयक को कानून की शक्ल देने में पांच साल का समय लगा। नरेंद्र मोदी सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि ताजा जाति जनगणना पर उसका क्या रुख है? यह कुछ उसी तरह की प्रतिक्रया है कि हम तो अपनी योजना पर बढ़े नहीं, लेकिन जो बढ़ा, वह भी देर से बढ़ा। जब बात आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की हो रही है तो राजनीतिक दल जातीय मतगणना की वकालत क्यों कर रहे हैं, इसके पीछे के मंतव्य को भी समझा जाना चाहिए।

यह सच है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से दलितों और पिछड़ों की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों को भी अपने पैरों के नीचे की राजनीतिक जमीन धसकती नजर आ रही है।  बिहार में भाजपा नेता सुशील मोदी ने तो यहां तक पूछ लिया है कि अब लालू परिवार और नीतीश कुमार किस मुंह से गरीब सवर्णों से वोट मांगेंगे। इस तरह के सवाल अन्य चुनावी राज्यों में भी उछल सकते हैं। हालांकि इस प्रवृत्ति से बचे जाने की जरूरत है।

वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय ऐसे वक्त पर आया है जब गुजरात,हिमाचल में विधानसभा चुनाव हैं। दिल्ली में एमसीडी के चुनाव हो रहे हैं। ऐसे में इस निर्णय का राजनीतिक लाभ किस दल विशेष को होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेर रहे विपक्ष को निश्चित रूप से इससे बड़ा झटका लगने वाला है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से जितनी राहत और तसल्ली गरीब सवर्ण वर्ग के लोगों को होगी, उससे कहीं ज्यादा मुफीद और फायदेमंद यह भाजपा के लिए साबित होने वाला है। दरअसल केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा देने का फैसला किया था। देश में गुजरात ऐसा पहला राज्य है, जिसने सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण प्रदान करने का फैसला किया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पूरे देश में लागू करने पर सहमति दे दी है। ऐसे में चुनाव से पहले भाजपा को बड़ा हथियार मिल गया है।  दिल्ली नगर निगम चुनाव 4 दिसंबर को है। उसी दिन 250 वार्डों में दिल्ली की ‘छोटी सरकार’ चुनने के लिए वोट पड़ने वाले हैं। दिल्ली की केजरीवाल सरकार  भाजपा को कूड़े के ढेर में उलझाना चाहती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को हरी झंडी देकर केजरीवाल सरकार के सपनों पर पानी फेर दिया है। दिल्ली में बड़ी संख्या में  बिहार, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश के लोग रहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय निश्चित रूप से उन्हें बड़ी राहत देगा और अगर ऐसा होता है तो इसका श्रेय और प्रेय दोनों ही भाजपा को प्राप्त होगा। ऐसे में अगर आमआदमी पार्टी की बेचैनी बढ़ती है तो वह स्वाभाविक ही है। हिमाचल प्रदेश के 68 विधानसभा सीटों और गुजरात में 182 विधान सभा सीटों पर चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में ईडब्ल्रूूएस  श्रेणी में आने वाले गरीब सवर्णों का वोट सीधे तौर पर भाजपा के खाते में जा सकता है। गुजरात में इस सवर्ण आरक्षण से प्रदेश के 2 करोड़ लोगों को फायदा मिलेगा जो आबादी का लगभग 30 फीसदी हैं। ईडब्ल्यूएस कोटे से राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ, बनिया और पाटीदार जातियों को फायदा मिलेगा। उधर हिमाचल में जाति समीकरण की बात करे तो राजपूत 33 फीसदी, ब्राह्मण 20 फीसदी और ओबीसी 14 और एसटी करीब 6 प्रतिशत हैं। ऐसे में चुनाव से पहले गरीब सवर्ण वर्ग को मिले आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को मिल सकता है।

गौरतलब है कि  8 जनवरी, 2019 को  लोकसभा ने 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी थी। 9 जनवरी को राज्यसभा ने 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी। 12 जनवरी को विधि और न्याय मंत्रालय ने नोटिस जारी करते हुए कहा कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सहमति दे दी है। फरवरी में नए कानून को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई। 6 फरवरी  को न्यायालय ने संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सरकार को नोटिस जारी किया। 8 फरवरी को न्यायालय ने 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटे पर रोक लगाने से इनकार किया।  8 सितंबर, 2022 को  प्रधान न्यायाधीश यू यू ललित की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की पीठ ने अपील सुनने के लिए पीठ का गठन किया। 13 सितंबर को न्यायालय ने दलीलें सुननी शुरू कीं। 27 सितंबर को न्यायालय ने आदेश सुरक्षित रखा। 7 नवंबर को न्यायालय ने 3:2 के बहुमत से दाखिलों, सरकारी नौकरियों में ईडब्ल्यूएस को 10 फीसदी आरक्षण प्रदान करने वाले 103वें संविधान संशोधन की वैधता को बरकरार रखा।

विकथ्य है कि जिन 40 लोगों ने गरीब सवर्णों की प्रगति की राह में याचिका के जरिए रोड़े अटकाने की कोशिश की, उन्हें यह तो सोचना ही चाहिए था कि दक्षिण में कुछ राज्य ऐसे भी हैं जो 70—80 प्रतिशत तक आरक्षण दे रहे हैं। जब दलितों, पिछड़ों को आरक्षण का लाभ मिल सकता है तो गरीब सवर्णों को क्यों नहीं मिल सकता? और जब 1992 में ही यह तय  हो गया था कि आरक्षण का प्रतिशत किसी भी सूरत में 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा तो इस पर अनावश्यक वितंडावाद खड़ा करने का वैसे भी कोई औचित्य समझ में नहीं आता।

सामान्य वर्ग में केवल सवर्ण ही आते हों, ऐसा नहीं है, उसमें आरक्षण का अलग से लाभ होने वाली जातियां भी शामिल होती हैं। इसलिए देखा जाए तो इससे गरीब सवर्णों के थोड़े आंसू जरूर पुंछ जाए लेकिन उससे उन्हें बहुत लाभ होने जा रहा है, यह नहीं कहा जा सकता। मौजूदा समय आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा का है। जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है, वे आर्थिक तौर पर कितने सक्षम हुए और नहीं हुए तो क्यों,इस पर चिंतन—मनन और विश्लेषण की जरूरत है। दलित और पिछड़े वर्ग के अमीर बन चुके नौकरशाहों और नेताओं के बेटे जाति के नाम पर आरक्षण का लाभ लेते रहें और आर्थिक तौर पर कमजोर तबका आरक्षण लाभ से वंचित रहे, यह लंबे समय तक वैसे भी नहीं चलने वाला है। इसलिए भी सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर सोच—विचार तो किया ही जाना चाहिए ताकि इस तरह के असमंजसपूर्ण हालात फिर उत्पन्न न हों।जब सामान्य कोटे में ही गरीब सामान्यों को आरक्षण का लाभ दिया जाना है तो उसमें दलितों, पिछड़ों को अलग करके देखने का वैसे भी कोई औचित्य नहीं है। बेहतर तो यह होता कि आरक्षण को लेकर यह देश गंभीरता से विचार करता। यही लोकहित का तकाजा भी है।

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