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‘पैड’ वुमेन बन ननद-भाभी ने बदली महिलाओं की दुनिया, मिला ऑस्कर पुरस्कार

बदली महिलाओं की दुनिया

बदली महिलाओं की दुनिया

मेरठ। हमारे देश में लोक लज्जा से सहमी बेटियां अंदर ही अंदर न जाने कितने रोग पाले रहती हैं? पीरियड के दिनों में वह अछूत बन जातीं हैं। वह दर्द से कराहती हैं, लेकिन वह इसे भी सह जाती हैं। महिलाओं के माहवारी के पांच दिन उनके लिए किसी सजा से कम नहीं होते। इसके प्राकृतिक होते हुए भी यह समाज की बड़ी वर्जना है। ऐसे में भारत में जब एक औरत पीरियड, पैड और हाइजीन पर मुखर होती है तो उसकी हिम्मत को सलाम करना ही चाहिए।

सुमन की मां कहती हैं कि बिना बाप की बेटी है, दबकर रह

हम हापुड़ की ऑस्कर पुरस्कार विजेता सुमन और स्नेह की बात कर रहे हैं। सुमन की मां कहती हैं कि बिना बाप की बेटी है, दबकर रह। मां के इन शब्दों को सुन सुमन बड़ी हुई थी। 17 साल की उम्र में सुमन ब्याह के ससुराल काठीखेड़ा आ गईं। जहां न बिजली, न सड़क और न टॉयलेट था। यहां जानवरों के लिए जगह थी, लेकिन औरत के लिए नहीं। सुमन को पीरियड में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। घर की सभी औरतें कपड़े का इस्तेमाल करती थीं। तब सुमन न सिर्फ खुद के लिए बल्कि गांव की हर औरत की उम्मीद बनी।

सुमन ने संस्था से जुड़कर महिलाओं को पैड का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया

सुमन ने संस्था से जुड़कर महिलाओं को पैड का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया। औरतों को जोड़कर पैड मशीन से पैड बनाए। इस प्रयास के लिए सुमन और उनकी ननद स्नेहा पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस ने ऑस्कर जीता। इसके बाद भी सुमन का सफर अभी भी जारी है। अब वह और स्नेहा गांवों की महिलाओं को पीरियड में हाइजीन के प्रति जागरूक करती हैं।

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पुरुषवादी मानसिकता ने सुमन की इस सोच को कुचलने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह दृढ़ बनीं रहीं

बता दें कि पुरुषवादी मानसिकता ने सुमन की इस सोच को कुचलने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह दृढ़ बनीं रहीं। उनका चरित्र हनन हुआ, अपशब्द कहे गए, एक बार हमला भी हुआ, लेकिन सुमन संघर्ष करती रहीं। उनकी लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि गांव की दूसरी महिलाओं के लिए भी थी। 40 वर्षीय सुमन वर्तमान में अपने परिवार के साथ हापुड़ में रहती हैं। आठ महीने पहले उन्होंने केयर वेंटा संस्था बनाई है। सुमन और स्नेहा हापुड़ के लगभग 40 गांवों में महिलाओं को जागरूक करने का कार्य कर रही हैं। सुमन की आने वाले समय में कश्मीर से कन्याकुमारी तक पैड यात्रा निकालने की उनकी योजना है।

पीरियड आज भी छुआछूत है, इसको लेकर समाज में फैली हुई हैं कई भ्रांतियां 

सुमन बताती हैं भले ही हमारा देश प्रगति के पथ पर अग्रसर हो चुका है। इसके बावजूद पीरियड आज भी छुआछूत है। इसको लेकर समाज में कई भ्रांतियां फैली हुई हैं। बाहर जाने वाली लड़कियां, महिलाएं पैड यूज करती हैं। 30 वर्ष से आगे बढ़कर महिलाएं कपड़े पर आ जाती हैं। हर महिला इस तकलीफ को झेल रही हैं। उन्हें यह सोचना होगा, हमें अपनी जरूरत खुद भी तो है। खुद से प्यार करना जरूरी है।

सुमन ने बताया कि हम लोग उन गांवों में ज्यादा काम करते हैं, जो शहर से 10-20 किमी दूर हैं। अब हम न पैड की बात करते हैं और न कपड़े की। उन्होंने कहा कि हमारा मुख्य मुद्दा स्वच्छता रहता है। निम्न मध्यम वर्ग के पास पैड के लिए पैसे नहीं हैं। ऐसे में उनके पास जो उपलब्ध है, उसे बेहतर तरीके से कैसे इस्तेमाल कर सकती हैं, ये उन्हें बताते हैं।

सेटअप के लिए नहीं मिली थी जगह

सुमन एक्शन इंडिया एनजीओ में काम करती थीं। 2017 में संस्था में पैड प्रोजेक्ट आया है। गांव में इसके सेट अप के लिए किसी ने जगह नहीं दी। सुमन ने अपना घर खाली कर सेट अप लगवाया है। खुद हापुड़ में किराए पर रहने लगीं हैं। सुमन ने अपनी ननद स्नेहा को इस प्रोजेक्ट से जोड़ा है।

गांव की दूसरी महिलाओं से भी बात की है। उस वक्त लोग उनका हाथ पकड़कर घर से भगा देते थे। गांव वाले कहते, कुछ और काम नहीं मिला करने को। धीरे-धीरे महिलाएं जुड़ने लगीं है। पैड शब्द गांव में निषेध था वह आज भी है। तीन चरणों में डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियडः द एंड ऑफ सेंटेंस’ बनी थी। 25 फरवरी 2019 को उसने ऑस्कर जीता। तब समूचे हापुड़ ने सुमन और स्नेह का स्वागत किया।

महिलाओं के लिए पैड फ्री क्यों नहीं?

सुमन ने बताया कि हमारी बात को दो वर्ग अच्छे से समझते हैं। 12-15 वर्ष तक की लड़कियां जिनके पीरियड शुरू हो रहे होते हैं। दूसरी 40-45 साल की महिलाएं जो भुक्तभोगी रह चुकी हैं। सरकार महिलाओं के मुद्दों पर काम नहीं करती है। महिलाओं के लिए राशन फ्री है लेकिन पैड नहीं। उन्होंने कहा कि यह बहुत बड़ी समस्या है। पैड यात्रा में हम महिलाओं से संपर्क और वर्कशॉप करेंगे। इसके अलावा टोल फ्री नंबर भी निकालेंगे।

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