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खेल में नफरत की तलाश

Looking for hate in the game

Looking for hate in the game

सियाराम पांडेय ‘शांत’

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को हर उस राज्य में नफरत नजर आती है, जहां भाजपा की सरकार है। केंद्र सरकार पर तो वे नफरत फैलाने के आरोप लगाते ही रहते हैं। आरोप को भी वे खेल की तरह ही लेते हैं। क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ उत्तराखंड और पूर्व क्रिकेटर वसीम जाफर के बीच विवाद की स्थिति बनी हुई है। इसकी अपनी वजह हो सकती है, लेकिन राहुल गांधी ने यहां भी मजहबी नफरत के दीदार कर लिए हैं। अब यह विवाद खिलाड़ियों का कम, राजनीतिक ज्यादा हो गया है।

उत्तराखंड की क्रिकेट एसोसिएशन ने वसीम जाफर पर धार्मिक भेदभाव और बायो बबल में ट्रेनिंग के दौरान मौलवियों को बुलाने का आरोप लगाया है। वसीम जाफर ने इस पर अपनी सफाई भी दे दी दी है और कहा है कि उन्होंने कभी भी प्रशिक्षण के दौरान किसी मौलवी को नहीं बुलाया है। कुल मिलाकर यह मामलों कुछ लोगों के बीच मतभेद का है। राजनीतिक दलों को इस मतभेद पर राजनीति नहीं करना चाहिए।

अगर वे कुछ कर सकते हैं तो उन्हें इस मतभेद की तह तक जाना चाहिए और मतभेद की जड़ को समाप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। सतही और फुनगी वाली राजनीति देश को परेशानी में डालती और तिल को ताड़ बनाती है। हाल ही में वसीम जाफर ने उत्तराखंड की टीम के कोच पद से इस्तीफा दे दिया है। इसके बाद े बाद ही बोर्ड और पूर्व भारतीय क्रिकेटर के बीच एक-दूसरे पर आरोप लगाने का सिलसिला शुरू हो गया है। बोर्ड का आरोप है कि वसीम जाफर ने चंदिला की जगह इकबाल अब्दुल्ला को टीम का कप्तान बनाया था।

बायो बबल में ट्रेनिंग कैंप के दौरान मौलवियों को बुलाने का आरोप भी उन पर लगा है। बिना आग के धुआं नहीं उठता लेकिन हमेशा आरोप सच भी नहीं होते और कई बार सच भी होते हैं। इसलिए जिम्मेदार लोगों को इस मामले में पहल करनी चाहिए। जरूरी हो तो मामले की जांच करानी चाहिए जिससे कि नीर-क्षीर विवेक हो सके। जाफर तो यहां तक कह रहे हैं कि उन्होंने तो इकबाल अब्दुल्ला को कप्तान बनाने की बात ही नहीं की थी।

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उन्होंने तो जय सिंह विष्ट को कप्तान बनाए जाने की बात कही थी। अगर ऐसा है तो बात समझाी जानी चाहिए कि कोई तो है जो अपने फायदे के लिए उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन और पूर्व कोच दोनों ही का इस्तेमाल कर रहा है। इस पर भी गौर किए जाने की जरूरत है। जाफर की मानें तो चयनकर्ता अयोग्य खिलाड़ियों का चयन करना चाहते थे। टीम सिख समुदाय से जुड़ा हुआ नारा लगाती थी । अगर वसीम जाफर वाकई गलत होते तो उन्हें पूर्व खिलाड़ियों का साथ न मिलता।

टीम इंडिया के पूर्व कोच अनिल कुंबले ने कहा है कि वह पूरी तरह से वसीम जाफर के साथ हैं और उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है। मनोज तिवारी भी वसीम जाफर के समर्थन कर रहे हैं। 31 टेस्ट खेल चुके जाफर अनुभवी कोच हैं और उनके नाम रणजी क्रिकेट में सबसे ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड भी दर्ज है। ऐसे में उनकी काबिलियत से कोई इनकार नहीं कर सकता। हर कोच चाहता है कि उसकी टीम में अच्छे खिलाड़ियों का चयन हो और उसकी टीम, उसके द्वारा प्रशिक्षित खिलाड़ी देश-दुनिया में अपनी जीत का परचम लहराएं।

खिलाड़ी की कोई जाति नहीं होती। कोई धर्म नहीं होता। खिलाड़ी के सामने अपना प्रदेश, अपना देश होता है। वह देश के लिए खेलता है। देश की जीत की कामना करता है। अगर वसीम जाफर ने किसी मुस्लिम खिलाड़ी के नाम सुझााए भी हों और वह अपनी काबिलियत पेश करने की कूव्वत रखता हो तो इसमें बुरा क्या है? खेल-जगत में अनावश्यक बात का बतंगड़ बनाना बिल्कुल भी ठीक है। राजनीतिज्ञों को तो खिलाड़ियों के मामले में वैसे भी नहीं कूदना चाहिए। वैसे भी खिलााड़ियों का चयन करते वक्त होने वाले भेदभाव से भी यह देश अपरिचित नहीं है। दो हमारे-दो तुम्हारे की संघावृत्ति से खेल भावना का विनाश ही होता है।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने शनिवार को कहा कि पिछले कुछ वर्षों में नफरत को इस कदर सामान्य कर दिया गया है कि अब क्रिकेट भी इसकी चपेट में आ गया है। उन्होंने ट्वीट किया है पिछले कुछ वर्षों में नफरत को इस कदर सामान्य कर दिया गया है कि हमारा प्रिय खेल भी इसकी चपेट में आ गया। भारत हम सभी का है। उन्हें हमारी एकता भंग मत करने दीजिए। जाफर ने चयन में दखल और चयनकर्ताओं तथा उत्तराखंड क्रिकेट संघ के सचिव के पक्षपातपूर्ण रवैये को लेकर इस्तीफा दे दिया था।

ऐसे में चयनकर्ताओं को भी अपना पक्ष रखना चाहिए कि इस्तीफा दे चुके कोच के आरोपों में कितना दम है। इस तरह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से किसी का भी कोई भला नहीं हो वाला। इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही उचित होगा। वसीम जाफर ने कहा है कि टीम में मुस्लिम खिलाड़ियों को तरजीह देने के उत्तराखंड क्रिकेट संघ के सचिव माहिम वर्मा के आरोपों से उन्हें काफी तकलीफ पहुंची है। जाफर का मानना है कि उन पर लगे सांप्रदायिकता के आरोप बहुत दुखद हैं। रिजवान शमशाद और अन्य चयनकर्ताओं के सुझाव को मुझे मानना पड़ा।

मौलवी या मौलाना जो भी देहरादून में शिविर के दौरान दो या तीन जुमे को आए उन्हें मैने नहीं बुलाया था। इकबाल अब्दुल्ला ने मेरी और मैनेजर की अनुमति जुमे की नमाज के लिए मांगी थी।‘हम रोज कमरे में ही नमाज पढते थे लेकिन जुमे की नमाज मिलकर पढ़ते थे तो लगा कि कोई इसके लिये आएगा तो अच्छा रहेगा। हमने नेट अभ्यास के बाद पांच मिनट ड्रेसिंग रूम में नमाज पढ़ी। यदि यह सांप्रदायिक है तो मैं नमाज के वक्त के हिसाब से अभ्यास का समय बदल सकता था लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।

पूजा-उपासना के लिए कोई भी कुछ समय निकाल सकता है। इसको गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। राहुल गांधी को हर चीज को सांप्रदायिक चश्मे से देखने की बजाय, विवाद की वजह तलाशनी चाहिए। उन्हें पता है कि ऐसे मामलों में वे कुछ नहीं कर सकते तो उन्हें मौन का आश्रय लेना चाहिए। इस तरह के मामलों में मौन सर्वोत्तम विकल्प होता है लेकिन जिसने अपनी आंखों पर चश्मा ही ऐसा लगा लिया हो जिसमें नफरत ही दिखे, प्रेम नहीं तो इसे और क्या कहा जा सकता है? खेल को खेल ही रहने दिया जाए, उसमें राजनीति का घालमेल न हो, यही उचित भी है।

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