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दुबकने को मरना तो न कहें साहब!

amit shah

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सियाराम पांडेय ‘शांत’

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah) ने बहुत बड़ा दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (CM Yogi) ने मच्छर और माफिया का अंत कर दिया है। इससे पहले उन्होंने कहा था कि दूरबीन से भी यूपी में माफिया नजर नहीं आते। अगर उनकी बात में सच्चाई है तो इससे बड़ी उपलब्धि इस धरती पर दूसरी कोई हो भी नहीं सकती।

यह और बात है कि उनके दूरबीन वाले बयान को विपक्षी दलों ने तत्काल लपक लिया था और उन्हें ‘कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढें वन माहिं’ वाला दोहा याद दिला दिया। यह बता दिया था कि माफिया का जनक तो बगल में ही था, चश्मा लगा लेते और दिख जाता। मच्छर वैसे भी अब मरते नहीं है, मर गए होते तो मलेरिया, डेंगू, जीका और हाथी पांव के मरीज बढ़ते ही क्यों? दुबक जाते हैं। कुछ समय के लिए नीम बेहोशी ओढ़ लेते हैं। उसी तरह माफिया भी दुबक जाते हैं। चुप्पी साध लेते हैं।

उनकी चुप्पी को उनकी सावधानी के आलोक में देखा जाना बेहतर होगा न कि उनकी कमजोरी के रूप में। तूफान पूर्व की खामोशी बेहद घातक होती है लेकिन जो माफिया की चुप्पी में आत्मप्रशंसा की गंध तलाश ले, उसकी सोच पर  संदेह तो होता ही है।

हाल के दिनों में लखनऊ की एक लिफ्ट में योगी को काटने जा रहे मच्छर को महापौर ने मार दिया था, तब योगी आदित्यनाथ की सस्मित संतवाणी प्रकट हुई थी कि मच्छरों को मारना नहीं है, उनका इलाज करना है। आजादी के बाद से आज तक मच्छरों का इलाज ही तो हो रहा है लेकिन मच्छर हैं कि मरते ही नहीं। मच्छरमार दवाएं भी उन पर असर नहीं कर पा रहीं। उससे वे थोड़े समय के लिए बेहोश जरूर हो जाते हैं लेकिन फिरजल्द ही दवा के मारक प्रभाव से अपने को मुक्त भी कर लेते हैं।  वे अपनी जीवनी शक्ति कुछ इस तरह विकसित कर लेते हैं कि मच्छर मार दवाओं का उन पर असर होता ही नहीं।  मच्छरों से निपटने के लिए जो फॉगिंग आदि होती है, उसमें अधिकारी और कर्मचारी उनके मददगार हो जाते हैं। उन्हें पता है कि लोभियों के शहर में कोई भी ठग उपासा नहीं मरता।

माफिया वर्ग के साथ भी कमोवेश यही बात है। उन्होंने कविवर रहीम को केवल पढ़ा ही नहीं, गुना भी है। ‘रहिमन चुप ह्वै बैठिए देख दिनन के फेर। जब नीके आइहैं बनत न लगिहैं देर।’ अपराधी गोजर हो गए हैं।  गोजर की दो-चार टांग टूटे भी तो भी उसका काम चलता रहता है। उन्होंने अकूत संपत्ति बना ली है। दो-चार संपत्ति जब्त हो गई, ढह भी गई तो इससे उनका क्या बनना-बिगड़ना है? हवा अनुकूल होते ही वे फिर अपनी मांद से बाहर आ जाएंगे।

माफिया केवल अपराध के क्षेत्र में हों, ऐसा नहीं है। अब उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली है। चोला बदल लिया है। मुखौटा लगा लिया है। और तो और उन्होंने अपराध की गंगोत्री यानी राजनीति का अंग बनना शुरू कर दिया है। समुद्र में बूंद की तरह वे राजनीति में समाहित हो गए हैं। उनके सिर पर राजनीतिक दलों का हाथ है, ऐसे में उन्हें देखने के लिए संजय की आंखें चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राजनीतिक दल अपराधियों को टिकट न दें लेकिन  मानेगा कौन?

माफिया  अपने तरह का रक्तबीज है। वह अपने आप में प्रवृत्ति है। उसके सभी प्रकारों पर चिंतन होना चाहिए। आजकल जिलों और शहरों के नाम बदलने पर जोर है लेकिन अच्छे इंसान बनाने की फैक्ट्री लगाने पर शायद ही किसी का ध्यान हो। शिक्षा के मंदिर जो इस दायित्व को बखूबी निभा सकते थे, वहां भी माफिया ने अपनी पैठ बना ली है। उनके नामकरण या नामांतरण से राजनीति की गंध आने लगी है। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।

गड़बड़ी जहां भी है, जिस किसी भी स्तर पर है, उसका वहीं समाधान किया जाना चाहिए। आगा-पीछा सोचने और  अपनी सुविधा का संतुलन तलाशने से फुंसी कब फोड़ा और नासूर बन जाती है, पता नहीं चलता। अब भी समय है कि रोग को पालें नहीं, मारें।

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