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चंद्रशेखर उपाध्याय को ‘न्यायमित्र पुरस्कार’ लौटाकर भी नहीं मिला न्याय

Chandrashekhar Upadhyay

Chandrashekhar Upadhyay

लखनऊ। देश के न्यायिक इतिहास में 19 फरवरी, 2005 की तारीख विशेष अहमियत रखती है। वह इसलिए कि इसी तारीख को हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए अपने छात्र जीवन से संघर्ष करने वाले न्यायाधीश चंद्रशेखर उपाध्याय (Chandrashekhar Upadhyay)  को उनके विलक्षण सेवा कार्य को देखते हुए देश का प्रतिष्ठित न्याय मित्र पुरस्कार दिया गया था। चंद्रशेखर उपाध्याय से पूर्व यह सम्मान अंतिम बार वर्ष 1993 में न्यायाधीश सतीश कुमार को दिया गया था।

लखनऊ, उत्तर प्रदेश में न्यायाधीश रहते हुए चंद्रशेखर उपाध्याय (Chandrashekhar Upadhyay)   को 23 जुलाई 2000 को एक दिन में मात्र 6 घंटों के भीतर 253 वादों का निस्तारण किया था। उसी दिन सबसे अधिक राजस्व भी एकत्रित किया जो एक दिन में प्राप्त किया गया। आज तक का सर्वाधिक राजस्व है। उसी साल 22 अक्टूबर को 6 घंटों के भीतर उन्होंने 210 वादों का निस्तारण किया था। 19 माह में चंद्रशेखर उपाध्याय ने न केवल 3778 वादों का निस्तारण किया बल्कि 7.6 लाख रुपये का सर्वाधिक राजस्व वसूल किया दिलचस्प यह है कि उन्होंने अपने सारे निर्णय अंग्रेजी में दिए थे। यह अपने आप में कीर्तिमान है जो राष्ट्रीय स्तर पर दर्ज है।

19 फरवरी , 2005 को मिला था विधि क्षेत्र का प्रतिष्ठित पुरस्कार

गौरतलब है कि विधि क्षेत्र का यह सबसे प्रतिष्ठित सम्मान एक ऐसे सर्वाधिक ईमानदार न्यायाधीश को दिया जाता है। जो परिस्थिति व व्यक्ति-निरपेक्ष होता है। अपने निर्णयों में गुणवत्ता बनाए रखता है। त्वरित निर्णय करता है। पुरस्कार हेतु गठित चयन समिति/ज्यूरी में सुप्रीम कोर्ट के ख्याति प्राप्त न्यायाधीश, विशेषज्ञ अधिवक्ता व विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य व्यक्ति शामिल होते हैं जो उपरोक्त बिंदुओं के आधार पर पुरस्कार हेतु योग्य व्यक्ति का चयन करते हैं। विधि के क्षेत्र में अभूतपूर्व कीर्तिमान रचने के कारण ही चंद्रशेखर उपाध्याय को 19 फरवरी 2005 को यह सम्मान प्रदान किया गया। इस लिहाज से समूचे राष्ट्र को उनपर गर्व है, किन्तु लगता है कि सत्तातंत्र में बैठे लोगों को इससे खुशी नहीं हुई।

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बड़ी अदालतों में नहीं हुए हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में फैसले

चंद्रशेखर उपाध्याय (Chandrashekhar Upadhyay)   द्वारा हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में वाद कार्यवाही संचालित करने हेतु तीन दशकों से भी अधिक समय से राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जा रहा है जिसे देश के नागरिकों का पूर्ण समर्थन प्राप्त है, किन्तु उच्चतम न्यायालय व 25 उच्च-न्यायालयों में आज तक हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में कार्य संचालन हेतु कोई व्यवस्था नहीं हो पायी है, जिससे आहत होकर चंद्रशेखर उपाध्याय ने अपना न्याय-मित्र पुरस्कार कुछ वर्ष पूर्व लौटा दिया था किन्तु राजतन्त्र में बैठे लोगों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।

संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन की मांग कर रहे हैं चंद्रशेखर

चंद्रशेखर उपाध्याय की मांग है कि केंद्र सरकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन करे ताकि उच्चतम न्यायालय व 25 उच्च न्यायालयों में हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में वाद कार्यवाही संचालित हो सके तथा निर्णय भी दिए जा सकें। इससे न सिर्फ हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को ऊंची अदालतों में उनका समुचित स्थान मिलेगा, अपितु वादकारियों को वाद कार्यवाही व निर्णयों को अपनी भाषा में सुनने व समझने का अवसर मिलेगा। हर भारतवासी भी यही चाहता है कि उनके प्रयासों को शीघ्र ही सफलता मिले। सवाल यह है कि क्या सरकार हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ न्याय कर सकेगी। जिस भाभूमि से न्यायविद चंद्रशेखर उपाध्याय ने न्यायमित्र पुरस्कार लौटाया था, क्या उसका सम्मान इस देश की सरकार करेंगी। क्या लोगों को अपनी मातृभाषा में अदालतों में वाद दाखिल करने और उसी में निर्णय पाने का अधिकार मिल सकेगा। यह सवाल हर आम और खास की जुबान पर है।

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