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कॉरपोरेट के आगे पस्त पड़े अमेरिकी आदर्श

American idol defeated in front of corporate

American idol defeated in front of corporate

अजेय कुमार

1912 के अमेरिकी चुनावों में उतरीं दो प्रमुख पार्टियों- रिपब्लिकन और डेमोक्रैटिक- के बारे में रूसी क्रांति के नायक लेनिन से पूछा गया तो उनका जवाब था, ‘दोनों पार्टियों के बीच संघर्ष इस सवाल को लेकर है कि पूंजीवादी विकास को तेज करने और आसान बनाने के लिए कौन बेहतर काम कर सकती है।’ कहना होगा कि यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है। नवंबर, 2020 में हुए अमेरिकी चुनावों के नतीजे लेनिन के उक्त कथन को पुष्ट करते हैं कि ये दोनों पार्टियां पूंजीवादी सुधारों के अलग तौर-तरीकों के जरिये पूंजीवाद की रक्षा करने में ही तत्पर रहती हैं। दोनों पार्टियों में से कोई भी रोजगार, डूबती अर्थव्यवस्था, लड़खड़ाती स्वास्थ्य सेवाएं, बढ़ती आर्थिक असमानता, नस्ली भेदभाव आदि ठोस मुद्दों पर अपना दावा पेश नहीं करती। वे वॉल-स्ट्रीट बैंकरों, बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चलने वाली एजेंसियों के हितों की गारंटी जरूर लेती हैं।

ध्यान देने लायक है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर जो बाइडन ने बर्नी सैंडर्स की प्रगतिशील घोषणाओं से अपने आपको अलग किया और आर्थिक मोर्चे पर उनसे अपने मतभेदों को रेखांकित किया। चुनाव के बाद जब बाइडन से उनकी पहली प्राथमिकता के बारे में पूछा गया तो वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार उनका जवाब था, ‘सामान्य स्थिति की बहाली।’ अखबार के मुताबिक ‘सामान्य स्थिति की बहाली घूम-फिर कर दोबारा ट्रंपवाद की ओर वापस लौटना है’।

राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासनकाल में बाइडन उप-राष्ट्रपति पद पर थे। 2008 के वित्तीय संकट में इन दोनों का रेकॉर्ड कारपोरेट्स को खुश करने वाला रहा। इस संकट के फलस्वरूप जहां ओबामा ने डूबते बैंकों और इंश्योरेंस कंपनियों की मदद के लिए खरबों डॉलर दिए, वहीं गरीबों और मध्यवर्ग के लिए कुछ नहीं किया। सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता की उन्होंने केवल बातें कीं। हां, एक ही लिंग के व्यक्तियों के बीच सेक्स की स्वतंत्रता और एलजीबीटी तबकों के अधिकारों पर जरूर कुछ काम किया, परंतु मजदूर वर्ग के हितों को लेकर कुछ खास संवेदनशीलता नहीं दिखाई।

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2016 में ट्रंप इसीलिए श्वेत अमेरिकी मजदूर वर्ग की चिंताओं को अपने चुनाव अभियान का मुख्य मुद्दा बना कर चुनाव जीतने में सफल रहे। आम अमेरिकी की इस मनःस्थिति से ट्रंप भलीभांति परिचित थे कि वह अपने वर्तमान से संतुष्ट नहीं है। हालांकि बतौर राष्ट्रपति मजदूरों के मोर्चे पर ट्रंप का रेकॉर्ड भी बहुत खराब रहा है। राष्ट्रीय श्रम संबंध बोर्ड में उन्होंने कट्टर यूनियन तोड़कों को नियुक्त किया। बेरोजगारी की दर दोगुनी हो गई। हर वर्ष 10 लाख अमेरिकी नौकरी छूटने की स्थिति में मिलने वाली सहायता राशि के लिए आवेदन देते हैं।

नए रोजगार पैदा करने के मामले में भी ट्रंप का रिकार्ड खराब रहा है। उन्होंने अमीरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के टैक्स में 1500 अरब डॉलर की कटौती की, जिसकी भरपाई के लिए आम नागरिक के हित में जाने वाले मेडिकेयर और अन्य सामाजिक लाभों में कटौती करने का प्रस्ताव रखा। मेडिकेयर में कमी के कारण ही दुनिया में कोविड से मरने वालों में सबसे अधिक 2,66,000 लोग अमेरिका में हैं। अमेरिका की आबादी विश्व की आबादी का 4 प्रतिशत है जबकि विश्व भर के कुल संक्रमितों और मृतकों में 20 प्रतिशत अमेरिकी हैं।

ट्रंप का जाना निश्चित रूप से खुशी मनाने का मौका है। यह ऐसे व्यक्ति का जाना है जो सचाई और विज्ञान को नकारता है, जो फेक न्यूज की संस्कृति पर विश्वास जताता है, जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी कायदे-कानून को नहीं मानता और विभिन्न देशों के तानाशाहों और दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी शासकों की संगत में खुद को बहुत सहज पाता है। डेमोक्रैटिक पार्टी बेशक चुनाव जीत गई, पर उसका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा। इसका मुख्य कारण यह है कि उसने कोई वैकल्पिक आर्थिक एजेंडा पेश नहीं किया।

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हालांकि पार्टी में बर्नी सैंडर्स के समर्थकों की बड़ी संख्या के चलते बाइडन ने मजदूर वर्ग और समाज के गरीब तबकों की चिंताओं को संबोधित करने की थोड़ी-बहुत कोशिश की। बाइडन-कमला हैरिस की चुनाव संबंधी वेबसाइट में कम्यूनिटी कॉलेजों को मुफ्त करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा का विकल्प खोजने, मजदूरों को यूनियनों में संगठित होने और सौदेबाजी की ताकत को मजबूत बनाने, 15 डॉलर प्रति घंटा न्यूनतम वेतन, बेघरों को घर देने जैसे कुछ वादे दिखाई दिए। परंतु ये वादे वेबसाइट तक ही सीमित रहे। इसे चुनावी अभियान में शामिल करने में बाइडन ने बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाई।

इस चुनाव की उत्साहवर्धक बात यह रही कि कांग्रेस के लिए लड़ रहे डेमोक्रैटिक सोशलिस्ट्स ऑफ अमेरिका के 30 उम्मीदवारों में 26 चुने गए हैं। संभव है कि इनके दबाव में बाइडन गरीबों के लिए कुछ सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास करें, परंतु सीनेट में रिपब्लिकनों का बहुमत होगा जो ऐसे हर गरीब परस्त कानून का विरोध करेंगे। इसलिए अमेरिकी सपने को पूरा करने के लिए जमीनी स्तर पर एक्टिविज्म को तेज करने का समय आ गया है।

हाल ही बराक ओबामा की किताब ‘द प्रॉमिस्ड लैंड’ आई है जिसकी भूमिका में कुछ दिलचस्प सवाल पूर्व-राष्ट्रपति ने किए हैं। ओबामा लिखते हैं, ‘क्या हम इस बात की परवाह करते हैं कि अमेरिका का यथार्थ उसके आदर्शों जैसा हो? अगर हां, तो क्या हम वाकई मानते हैं कि स्वशासन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अवसरों की समानता और कानून के सामने समानता जैसी अवधारणाएं हर किसी पर लागू होती हैं? या हम इसके बजाय, कानूनन न सही, व्यवहार में इन चीजों को कुछ विशेषाधिकार संपन्न लोगों के लिए सुरक्षित रखने को प्रतिबद्ध हैं?

मैं देख रहा हूं कि कुछ लोग हैं जो मानते हैं कि यह मिथ को खारिज करने का समय है, कि अमेरिका के अतीत के परीक्षण और आज की सुर्खियों पर सरसरी नजर डालने से भी पता चलता है कि विजय और दमन, एक नस्ली जातीय व्यवस्था और हमलावर पूंजीवाद के मुकाबले इस देश के आदर्श हमेशा दोयम दर्जे के रहे और इससे मुंह मोड़ना एक ऐसे खेल में शामिल होना है जिसमें शुरू से धोखाधड़ी होती रही है!’ ध्यान रहे, यह उस शख्स का बयान है जो आठ वर्षों तक अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर सत्तासीन रहा!

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